गरीब का सामाजिक न्याय

Politics of Reservation

देश मे इन दिनों आरक्षण की बहस फिर से एक बार नए सिरे से शुरू हो गयी है। गरीबी के नाम पे दिया गया आरक्षण किसी भी आरक्षित को ही नहीं पच रहा। जबकि एक आरक्षित ही दूसरे आरक्षित का हक़ मार रहा है जो उसी के समाज का है लेकिन उसके जितना शिक्षित या जानकार नहीं है। आसपास के कुछ परिवार देख सकते हैं दूसरी और तीसरी पीढ़ी भी आरक्षण के लाभ से ही सम्मानित और धनी बनी हुई है। मगर ये धन और सम्मान उन्हीं के समाज के लिये अभिशाप होता चला गया क्योंकि हमेशा लाभार्थियों में वो सबसे आगे खड़े होते हैं और असल मे जो हक़दार हैं और जिनके लिए ये व्यवस्था बाबा साहब के संविधान में की गई वो उस लाइन तक ही नहीं पहुँच पाते।

गरीबी को न जाने किस प्रकार की सामाजिक बुराई की श्रेणी में रखा जाए क्योंकि नेताओं ने तो बताया है कि सामाजिक न्याय से इसका कुछ लेना देना नहीं है। जो भी भेदभाव कभी किसी पीढ़ी में एक पंत ने दूसरे पंत पर किये हैं और जो सामाजिक प्रतिनिधित्व से उन्हें दूर रखा गया है ये बस उसके निवारण के लिए की गई व्यवस्था है, मतलब समाजिक न्याय बस जाति व्यवस्था पर ही टिका है। इस हिसाब से तो मुझे लगता है सभी SC/ST भाइयों को अपना सरनेम ही बदलने की ज़रूरत है और सामाजिक न्याय हो जाएगा। शहरों में तो वैसे भी इस से किसी को कुछ लेना देना नहीं होता और शायद अगली पीढ़ी तक सभी गांवों में भी ऐसा हो जाएगा। पर ये वो समाजिक न्याय तो नहीं है न जिसका सपना किसी ने कभी देखा होगा।

लाल सलाम का झंडा उठाये लोग भी खुल कर गरीब सवर्णों के पक्षकार होते थे मगर संसद में गरीबी की बात हुई तो उन्हें भी अपना वोट बैंक खिसकता दिखने लगा। किसी का आरक्षण वापस नहीं लिया बस कुछ गरीबों को और दे दिया लेकिन लोग गरीब को गरीब रहने देना चाहते हैं क्योंकि भीड़ तो वही है ना… मंदिर मस्जिद के आन्दोलनों वाली भीड़, नेताओं की सभाओं में बैठी भीड़, अपने नेता के लिए मरने मारने को तैयार भीड़, बलात्कार का विरोध करती हुई भीड़, तमाशा देखती हुई भीड़ और खुद तमाशा बनी हुई भीड़। ऐसी भीड़ में किसी का भी सिलेक्शन सरनेम देख कर नहीं होता….होता है तो बस गरीबी देख कर। ये भी कोई छीनने की कोशिश कर रहा है। अब एक मात्र लोकतांत्रिक चीज़ को कैसे छीन सकते हो आप। हमें गरीब चाहिए इनकी फ़ोटो ही विदेशी खींचते दिखते हैं।

हालांकि 8 लाख से कम सालाना कमाने वाला ही सरकार के हिसाब से गरीब है और 32 रुपये से ज्यादा कमाने वाला गरीब नहीं है (ये भी सरकार की ही रिपोर्ट थी) ये गणित लगाते लगाते मुझे मेरे अंक ज्ञान पर ही संदेह हो गया है। खैर इलेक्शन आ रहा है और ये हर छमाही आता रहता है कहीं न कहीं, हमारे स्कूल की अर्धवार्षिक परीक्षाओं की तरह। तो ऐसा फैसला लेने वालों पे इसका फायदा उठाने म आरोप लगाना आसान है।

हालाँकि पिछले करीब 70 सालों में इतने चुनाव हुए हैं जिसमे “गरीबी हटाओ” ही नारा था…बस कैसे इसका पता लगाने के लिए शोध चल रहा है और जब पता लगेगा उस पर अमल कर लिया जाएगा तब तक ये थोड़े अमीर गरीब को गरीब अमीर बनाने की व्यवस्था का स्वागत कीजिये।

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