हिंदुओं के अस्तित्व की बात: हिंदुओं के विश्वास की बात

सभी को जैसियाराम।

बुराई पर अच्छाई की विजय के प्रतीक के रूप में मनाये जाने पर्व विजयदशमी की शुभकामनाएं। हम इसी तरह साल दर साल विजयदशमी मनाते रहें-ईश्वर से बस इतनी सी प्रार्थना है।

फ़ेसबुक पर लिखी एक पुरानी पोस्ट देखें:
साक्षी महाराज ने तो एक साधारण सी जानकारी दी कि मुसलमानों की जनसंख्या हिन्दुओं के सापेक्ष भारतीय उपमहाद्वीप में तेज़ी से बढ़ रही है। यह तो एक तथ्य है जिसे कोई काट नहीं सकता, पर एक तो हममें से अधिकांश लोग इस मत के हैं कि इन सबसे हमें क्या लेना-देना! और दूसरे, जो लोग इससे चिंतित भी हैं, वह भी इसके कारणों की मीमांसा नहीं कर रहे हैं: इसलिए नहीं कि कारण उन्हें पता नहीं है, बल्कि इसलिए कि सब जानते हुए भी इसमें वह कुछ कर नहीं सकते: यह तो लगभग एक प्राकृतिक/ स्वाभाविक क्रिया है।

जंगल में शेर भयंकर अल्पमत में रहते हुए भी वहाँ राज्य करता है. अन्य पशु चाहे जितने संगठित हो जाएं, चाहे उनमें से हरेक सैकड़ों बच्चे पैदा करने लगे, पर वह बच्चे अंततोगत्वा शेर के भोजन ही बनेंगे; राज्य नहीं कर सकते। उसी तरह हम भी जानते हैं कि हिन्दुओं का खात्मा प्रकृति के नियमों के ही अनुसार हो रहा है: इसमें कोई कुछ नहीं कर सकता।

फिर भी, अगर इस स्थिति को उलटना है, तो हमें इसके कारणों की तह तक जाना होगा। महर्षि दयानंद ने इस पर विचार करके संदेश दिया: वेदों की ओर लौटो, पर हमने इसका अर्थ यह निकाला कि मूर्तिपूजा छोड़कर वैदिक ऋचाएं याद करो। गीता किसी भी दुविधा में मनुष्य को किस प्रकार अपने कर्त्तव्य का निर्धारण करना चाहिए, इस विषय पर एक अप्रतिम ग्रन्थ है, पर हम केवल उसे याद करके संतोष कर लेते हैं: प्रकृति ने हमें ऐसा ही बनाया है। महमूद गजनवी ने जब सोमनाथ पर आक्रमण किया था, जिसका सबसे अच्छा किन्तु औपन्यासिक विवरण आचार्य चतुरसेन शास्त्री के ‘सोमनाथ’ में मिलता है, जिसके अनुसार महमूद तो जानता था कि उसे क्या करना है: उसने अपने कार्य की सफलता के लिए मंदिर के प्रधान पुजारी गंग सर्वज्ञ से आशीर्वाद भी लिया था, पर जिनके ऊपर मंदिर की रक्षा का भार था, वह दुविधा में थे- उन्हें लगता था कि भगवान शिव स्वयं अपने विग्रह की रक्षा कर लेंगे। दुविधा में वह अपने कर्त्तव्य का निश्चय नहीं कर सके, और गीता का ही वचन है: ‘अज्ञश्चsश्रद्धानश्च संशयात्मा विनश्यति’। संशय में ही उनका सर्वनाश हो गया। पर इसमें उनका कोई दोष नहीं था: ईश्वर की यही इच्छा थी। ईश्वर ने उन्हें बनाया ही इसी तरह था। हम चार्वाक से पहले भी चार्वाकपंथी रहे हैं, इसीलिए हमारे ऋषि-मुनियों को बार-बार आकर द्वैत-अद्वैत की शिक्षाएं देनी पड़ीं, पर हम नहीं सुधरे; हमें बनाया ही इस तरह गया है!

दूसरी तरफ़ मुसलमानों की सबसे बड़ी ताकत अल्लाह और मुहम्मद पर उनका मुकम्मल ईमान है। इस विषय पर ठीक एक साल पहले मैंने फेसबुक पर ही यह लिखा था, जिसे आज ही दुहराया है, कृपया देखें:
इस्लाम के अनुयायियों की एक खासियत तो माननी ही होगी। इनका धैर्य असीम है। ऐसा धैर्य अटूट विश्वास से पैदा होता है। अन्य धर्मावलम्बी जहाँ अपने विश्वासों में वैज्ञानिकता ढूँढ़ते रहते हैं, वहीँ वैज्ञानिकता-अवैज्ञानिकता की परवाह किये बिना इस्लाम के अनुयायी अपने विश्वासों पर अटल हैं। कोई कुछ भी कहता रहे, पर इन्हें विश्वास है कि जीत इन्हीं की होगी क्योंकि अल्लाह ने खुद फ़रमाया है: अल्लाह पर ईमान न लाने वाले शैतान की पार्टी के हैं (क़ुरआन 58:19) और वह हारने के लिए अभिशप्त हैं, वहीँ अल्लाह और मुहम्मद पर ईमान लाने वाले अल्लाह की पार्टी के हैं और जीत उन्हीं की होगी (क़ुरआन 58:22)। अल्लाह के इस सुस्पष्ट सन्देश पर पूर्ण विश्वास रखने के कारण मुसलमान कभी हार नहीं मानते, और पूरी दुनिया में इस्लाम का झंडा फहराने के अल्लाह के फरमान (क़ुरआन 9:29) के अनुपालन में प्राणपण से लगे रहते हैं।

इस विश्वास का ही परिणाम है कि यह पूरी दुनिया पर दावा ठोंकते हैं, और अपना दावा कभी नहीं छोड़ते। युद्ध में कब्जे पर कब्ज़े होते रहते हैं, और इस्लाम ने एक बार जहाँ कब्ज़ा कर लिया, उस पर इनका दावा अनन्त काल तक बना रहता है; इस बात का कोई मतलब नहीं रह जाता कि उनके कब्ज़े से पहले वहाँ कौन रहता था या बाद में वहाँ किसी और का कब्ज़ा हो गया। अपनी इस विशेषता के कारण यह आज भी न तो भारत-भूमि पर अपना दावा छोड़ने के लिए तैयार हैं, और न ही कुस्तुंतुनिया (Constantinople) सहित शेष योरप पर। यहाँ यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि कुस्तुंतुनिया पर कब्ज़े की पहली कोशिश ईसवी सन 674 में हुई थी, और अनेक लड़ाइयों के बाद कब्ज़ा सन 1453 में। जो क़ौम अपने विश्वास के बल पर इतनी लम्बी लड़ाई लड़ने का धैर्य रखती हो, उससे कोई कैसे लड़ेगा? ऐसी क़ौम को B52 बमवर्षकों और अन्य उच्च तकनीक वाले हथियारों से नहीं हराया जा सकता; तकनीक उन्हें केवल एक अस्थायी विजय का आभास दिला सकती है। इस्लाम अथवा इस्लामी आतंकवाद पर निर्णायक विजय तभी प्राप्त होगी, जब इस्लाम का अंतिम अनुयायी समाप्त हो जायेगा। इस्लाम अपने विश्वास के सहारे अन्त तक लड़ने के लिए तैयार है, जबकि तकनीक से लड़ने वाले अस्थायी विजय के बाद मैदान छोड़ देते हैं। इस्लाम और इस्लामी आतंकवाद से लड़ने के लिए उनके टक्कर का ही विश्वास चाहिए। क्या किसी में है ऐसा अटूट विश्वास?
साल भर पहले की पोस्ट समाप्त।

कहाँ से लायेंगे ऐसा अटूट विश्वास? विश्वास के बिना चाहे आप संगठन बना लीजिये चाहे दर्जनों बच्चे पैदा कर लीजिये, कुछ नहीं होने वाला।
क्वांटिटी नहीं क्वालिटी बढाने की बात कीजिये।
जय सियाराम।

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