भोर

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भोर रात और दिन की संधि का ऐसा समय है जब अंधकार अपने अस्तित्व के मिटने के भय से कंपित होता है और प्रकाश सूर्य की कोख से निकलकर विस्तार पाने को आतुर होता है। इस समय जागृत निशाचरों और सुप्त दिवाचरों, दोनों में बराबर की हलचल होती है।

प्रकाश होते ही निशाचरों की आंखें चौंधिया जाती हैं। वे अपनी आंखें बंद कर किसी अंधेरे कोने में जाकर छुप जाना चाहते हैं। उनके कर्तव्य की सीमा का बोध उन्हें निष्क्रिय कर देता है। वे रात्रि के पुनरागमन की प्रतीक्षा करते हैं।

परंतु भोर का महत्व निशाचरों की निष्क्रियता में नहीं। भोर का महत्व उन सुप्त दिवाचरों के लिए है जिनके जीवन की हर आवश्यकता प्रकाश पर निर्भर करती है। इनमें से कुछ जागृत होकर सूर्य की प्रथम किरण के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं किंतु यह भी मानते हैं कि आगे के कर्म उन्हें स्वयं करने हैं।

अधिकतर आलस्य के मारे लेटे रहते हैं, आंखें मूंदकर रात होने का ही आभास करते हैं और फ़िर सूर्य की तपिश बढ़ जाने पर कुढ़ते हैं।

कुछ ऐसे होते हैं जिनपर निशाचरी प्रवृत्ति का प्रभाव होता है। ये देर तक सोने के बाद सूर्य को कोसने लगते हैं उनकी निद्रा भंग करने के लिए। लंबा शयन इन्हें अकर्मण्य बना चुका होता है और ये सूर्य को ही सारे कार्य करने और फल देने का उत्तरदायी मानते हैं।

सूर्य के आगमन से भोर होती है, उसके प्रकाश और तप का प्रभाव बढ़ता है तो संसार में सर्वांगीण उन्नति और प्रगति का मार्ग प्रशस्त होता है। परंतु सूर्य न किसी का कर्म करने का दायी है न कर्मफल देने का। उसका काम कर्म करने की ऊर्जा प्रदान करना है जो वह निर्बाध, निश्छल और निर्भेद करता है। कौन कितना आगे बढ़ेगा, यह उसके अपने कर्म पर निर्भर है, सूर्य के तप और ऊर्जा को वह कितनी दक्षता से उपयोग करता है, इसपर निर्भर है।

भारतवर्ष में भोर-बेला का प्रारंभ हो चुका है। सूर्य अपनी समस्त ऊर्जा इसे समर्पित करने को प्रस्तुत है, प्रयासरत है। अब राष्ट्र के अपने कर्म उसकी नियति का निर्धारण करेंगे।

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