किसी भी यौन अपराध पीड़िता द्वारा लगाए आरोपों पर विश्वास क्यों करना चाहिए?

काफी समय से मैं इस विषय पर एक लेख लिखने का विचार कर रहा था, और कुछ दिनों पहले मेरी शिल्पी तिवारी जी से इसी विषय पर एक बड़ी ही रोचक बहस भी हुई। तब मैंने इस लेख को लिखने का तो तय कर लिया था पर अपने विचार असरदार तरीके से नियोजित करने में एक यूट्यूब विडियो से मुझे अत्याधिक सहायता मिली और उस विडियो के रचनाकार की अनुमति से उनके मूल तर्क जोकि मेरे भी मूल तर्क हैं उनका हिन्दी संस्करण मैं इस लेख के माध्यम से प्रस्तुत करना चाहता था। वह विडियो भी मैं इस लेख के अंत में संलग्न कर रहा हूँ।

नारीवाद के समर्थकों की ओर से अकसर एक प्रस्तावना सुनने में आती है – “जब कोई महिला कहती है कि किसी पुरुष ने उसका यौन उत्पीड़न या बलात्कार किया गया है, तो सबसे पहले उस पर विश्वास करें और सुनिश्चित करें कि वे जानती हैं कि आप ऐसा करते हैं क्योंकि यौन हिंसा के बारे में आगे आना वाकई मुश्किल है और कई बार रेप पीड़िता पर लोग विश्वास नहीं करते हैं जिस कारण से वे सामने आने से डरतीं हैं।”

यहां मूल तर्क अनिवार्य रूप से किसी महिला द्वारा लगाए गए यौन उत्पीड़न के आरोपों को ‘सुनने और उनपर विश्वास करने’ के लिए है, जब वे ऐसे किसी अपराध या अन्यथा घृणित व्यवहार के शिकार होने का दावा करतीं हैं। हालांकि यदि आप उनकी इस बात पर ध्यान दें तो ऐसे किसी भी व्यक्ति के द्वारा, जो ‘सुनने और विश्वास करने’ के इस प्रस्ताव का समर्थन करने का दावा करता है, वास्तव में कोई तर्क नहीं दिया जाता है।

इस विचार के कुछ समर्थक प्रायः केवल अटकलें प्रदान करते हैं कि लोग महिलाओं पर विश्वास क्यों नहीं करते हैं जब वे यौन उत्पीड़न या बलात्कार का शिकार होने का दावा करती हैं। इन अटकलों को वे अपने इस प्रस्ताव के समर्थन में तर्क स्वरूप प्रस्तुत करते हैं।

लेकिन वास्तव में ऐसा करने के पक्ष में तर्क क्या है?

इससे पहले कि हम इस तर्क का सत्कार करें, हमें इस धारणा को विभिन्न संदर्भों में संबोधित करना पड़ेगा क्योंकि व्यक्तिगत संदर्भ में जब इसमें कोई व्यक्ति शामिल होता है जिसे आप जानते हैं और प्यार करते हैं, तो उन पर विश्वास करना तथा उनको संबल देना अनुचित नहीं है। प्रिय लोग अकसर आपसे ऐसी बात को लेकर गलत नहीं बोलते हैं और आपके सहयोग के पात्र होते हैं।

मीडिया के संदर्भ में, इन आरोपों को ‘सुनना’ अनुचित नहीं है। यदि कोई बात सार्वजनिक हित में है तो जनता को इसे में सुनना ही चाहिए। और ज़ाहिर है न्यायिक व्यवस्था के दृष्टिकोण से भी, इस प्रस्ताव का पहला भाग, यानि ‘सुनो’ भाग पूर्ण रूप से तर्कसंगत है। परंतु यह दूसरा भाग, ‘विश्वास करो’ भाग, है जो कि वास्तव में न्यायपूर्ति के संदर्भ में चिंताजनक है।

ऐसा क्यों है, ये समझने के लिए एक उदाहरण ले लीजिये:

कल्पना कीजिए कि आपके दो बच्चे हैं – एक बेटा और एक बेटी। एक दिन वे दोनों आपके पास दौड़ते हुए आते हैं और आपकी बेटी आपके बेटे की ओर इशारा करते हुए कहती है कि “उसने मेरे बाल खींचे” या जो भी हो। उसने आपके बेटे पर ‘क, ख, ग’ किसी भी कृत का आरोप लगाया। आपका बेटा भी जोर से चिल्ला कर से आपसे कहता है, “नहीं, ऐसा नहीं हुआ! वो झूठ बोल रही है!”

अब दो बातों में से एक सच है- या तो आपके बेटे ने झूठ बोला है या आपकी बेटी ने झूठ बोला है। आप माता-पिता के रूप में अपने बेटे पर विश्वास करना या अपनी बेटी पर विश्वास करना चुन सकते हैं। दुर्भाग्यवश यह साबित करने का कोई ठोस तरीका नहीं है कि सत्य कौन कह रहा है। इसका मतलब है कि कुल चार संभावित परिणाम हैं:

1. आपका बेटा दोषी है लेकिन आप उसे दंडित नहीं करते हैं।
2. आपका बेटा दोषी है और आप उसे दंडित करते हैं।
3. आपका बेटा निर्दोष है और आप उसे दंडित नहीं करते हैं।
4. आपका बेटा निर्दोष है और आप उसे गलत दंडित करते हैं।

यदि गणित पर विश्वास किया जाये, तो ५०% संभावना है कि आप एक अनुचित निर्णय लेंगे, जो आपको एक अभिभावक के रूप में बड़े ही कठिन स्थान पर ला छोड़ता है। न केवल ५०% संभावना है कि आप गलत निर्णय ले लेंगे, लेकिन आप यह निश्चित रूप से कभी भी नहीं जान पाएंगे कि आपने सही फैसला किया है या नहीं। अब आप इन बातों को ध्यान मे रखते हुए सोचिए कि क्या आपको अपनी बेटी पे मात्र इसलिए यकीन कर लेना चाहिए कि वह लड़की है? नहीं न?

इसी प्रकार कई लोग सवाल उठाते हैं कि झूठे आरोपों का क्या? यदि भारत के लिहाज से देखें तो लगभग ५०% यौन उत्पीड़न के आरोप गलत साबित होते हैं। पर इस कथन के समर्थक, हो सकता है कि आपके सामने कुछ सांख्यिकी प्रस्तुत कर यह कहें कि असल में सभी आरोपों का एक बेहद ही छोटा भाग झूठा होता है और मीडिया में प्रचलित ५०% का आंकड़ा गलत है। फिर भी एक बात नहीं बदलती है कि दोष सबूतों पर आधारित होता है न कि दोषी होने कि सांख्यिकीय संभावना पर। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी के द्वारा लगाए गए आरोप की वैधता मौजूद प्रमाणों व तथ्यों के आधार पर तय होती है, उसके सच होने या न होने सांख्यिकीय संभावना पूरी तरह से अप्रासंगिक है।

यह प्रस्ताव कि किसी महिला द्वारा लगाए गए आरोप को ‘सुनो और विश्वास करो’ बेहद ही गैरजिम्मेदाराना प्रस्ताव है क्योंकि यदि आप इसका अनुसरण करेंगे तो आपके लिए किन्हीं साक्ष्य व सबूतों की आवश्यकता नहीं रह जाती है और कोई भी झूठा आरोप आपको सहज ही मूर्ख बनाने में सफल हो जाएगा। और यदि समाज किसी भी आरोप पर सहज ही विश्वास करने लगे तो निरपराध, निर्दोष व्यक्तियों के जीवन बर्बाद होने लगेंगे।

उदाहरण स्वरूप हाल ही कि एक घटना में एक बॉलीवुड अभिनेत्री द्वारा लगाए गए झूठे और बहुत ही गैर जिम्मेदाराना आरोप की वजह से एक सम्मानित व्यक्ति को पोक्सो कानून के अंतर्गत जेल जाना पड़ा और उनकी सामाजिक छवि पर लांछन लग गया। हरयाणा का कुख्यात रोहतक बहनों के कांड में भी आरोप गलत थे और बेचारे आरोपियों का भविष्य बर्बाद हो गए, बावजूद इसके कि उन्हे न्यायालय से दोषमुक्ति मिल गयी।

इस संकथन का बेतुकापन दर्शाने के लिए मैं यह प्रश्न आपके सामने रखता हूँ, “क्यों ना हर उस पुरुष पर विश्वास कर लिया जाए जो किसी महिला पर झूठा इल्जाम लगाने का आरोप लगाता है?” यह सशब्द बिलकुल वही प्रस्ताव है, बस अंतर इतना है कि आरोप रेप की जगह झूठा इल्जाम लगाने का है और आरोप लगाने वाले का लिंग महिला की जगह पुरुष है!

प्रायः किसी व्यक्ति या कथन पर विश्वास न करने को उस व्यक्ति या कथन को झूठा समझना मान लिया जाता है, परंतु इस द्विचर से परे एक तीसरा विकल्प भी है – अज्ञेय रहना अथवा संशय।

अंततः सारी बात का सारांश यह है कि जब कोई भी चाहे वह महिला हो या पुरुष या तीसरे लिंग का व्यक्ति हो, किसी पर भी कुछ भी आरोप लगाता है तो हमें उनके आरोपों को अनिवार्य रूप से सुनना चाहिए और उन्हें गंभीरता से लेना चाहिए पर आरोप का पूरा सच साबित होने तक न तो आरोपी पर और ना ही आरोप लगाने वाले पर विश्वास करना चाहिए।

anonBrook: Manga प्रेमी| चित्रकलाकार| हिन्दू|स्वधर्मे निधनं श्रेयः| #AariyanRedPanda दक्षिणपंथी चहेटक (हिन्दी में कहें तो राइट विंग ट्रोल)| कृण्वन्तो विश्वं आर्यम्|
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