बंगाल: रक्त-नदी, नरसंहार और मीडिया का झूठ

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बंगाल में बीते सप्ताहांत में राम नवमी उत्सव हत्या और दंगे का उत्सव बन उठा। खबर के मुताबिक, एक पुलिसकर्मी ने अपना एक हाथ भी गँवाया है।

क्रूरता!

मैं इस स्थिति के विशिष्ट तथ्यों को नहीं जानता और यह लेख उस बारे में है भी नहीं। बल्कि यह लेख बंगाल में हिंसा के लिए सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया के बारे में है। आश्चर्य की बात नहीं, सोशल मीडिया पर ज़्यादातर लोग नाराज़ थे और स्थिति के बारे में परेशान भी।

यह लेख उस आक्रोशक भावना को ध्यान से समझने के बारे में है। अफसोस की बात है, बंगाल के बारे में कुछ सच्चाई ऐसी हैं जिनके बारे में राज्य के बाहर के लोगों को जानना आवश्यक है। और यह खेद की बात है कि वो सच्चाई एक अच्छी खबर तो बिलकुल नहीं है।

व्यापक तौर पर, सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया में निम्नलिखित दो विषय निहित हैं:

  1. बंगाल में हिंसा पर आक्रोश की भावना
  2. बंगाल में हिंसा पर आघात की भावना

अब, आक्रोश की भावना पर मैं पूरी तरह से सहमत हूँ। लेकिन आघात? काश मैं उस भावना को साझा कर पाता।

एक बंगाली के लिए, बंगाल में राजनीतिक हिंसा पर उनकी आघात और आश्चर्य की भावना को स्पष्ट रूप में ऐसे बता सकते हैं: आप वो व्यक्ति हैं जो १९४४ में यूरोप पहुँचते हैं और आश्चर्यजनक रूप से पाते हैं कि चारों ओर तबाही और दंगे फैले हुए हैं। क्या आपको मालूम नहीं है कि दूसरा विश्व युद्ध १९३९ से सतत चल रहा है?

तो यह लेख बंगाल से बाहर के लोगों के लिए पहला पन्ना ही मान लीजिये। पश्चिम बंगाल में आग आज नहीं लगी है, यह तो दशकों से इस आग में जल रहा है। बस आपको ही इसके बारे में अभी तक नहीं पता था। कारण यह समझ लीजिये कि मीडिया नामक दीमक को बंगाल की राजनीतिक हिंसा के लिए बीजेपी और हिंदुत्व समूहों पर दोष मढ़ने का कोई जरिया नहीं मिला था, इसलिए उन्होंने इस बारे में आपको कभी नहीं बताया।

किन्तु चूँकि अब भाजपा का बंगाल में पाँव तेज़ी पसर रहा है, तो मुझे आशा है कि आप आने वाले दिनों में राज्य के बारे में अधिक से अधिक सुनेंगे।

तो यहाँ बंगाल में राजनीतिक हिंसा की कहानियों की एक छोटी सी सूची है जिसे आपने कभी नहीं सुना क्योंकि बिकाऊ मीडिया ने इसे आप से छुपाया रखा। आगे तभी पढ़िएगा अगर सच का सामना करने की हिम्मत रखते हैं।

१९९७ में, पश्चिम बंगाल विधानसभा में, राज्य के गृह मंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने स्वीकार किया था कि १९७७-१९९६ के बीच २८,००० राजनीतिक हत्याएँ हुईं।

चौंक गए? यह तो सिर्फ शुरुआत मात्र ही है।

उपरोक्त कथन का अर्थ है, प्रति वर्ष १५०० राजनीतिक हत्याएँ या हर दिन लगभग ४ राजनैतिक विरोधी की हत्या। जी हाँ, हर दिन ४ हत्याएँ!

बंगाल में, विरोध केवल एक खतरा नहीं था अपितु विरोध का अर्थ ही था मौत। “विरोध” का नतीजा फेसबुक या ट्विटर पर टिप्पणीबाजी करके थिंकफैस्ट सर्किट पर तुरंत सेलिब्रिटी का दर्जा दिया जाना नहीं होता था। विरोध मतलब ‘मृत्यु’।

आपने इसे कभी नहीं सुना है क्योंकि मीडिया और बुद्धिजीवियों और शिक्षाविदों के लिए अब तक बंगाल में दोष देने के लिए भाजपा नहीं थी। रक्त की लाल नदी को अनदेखा करना लाज़मी था, इसमें दो राय कहाँ हो सकती है?

अरे, क्या मैंने ‘रक्त’ कहा? क्षमाप्रार्थी हूँ।

कई मामलों में, खून का कोई खेल नहीं होता था। एक पूर्व सीपीएमएम सांसद ने बताया कि पिनाराई विजयन, अब माननीय केरल के मुख्यमंत्री ने एक बार अपने साथियों को ‘बंगाल तन्त्र’ अपनाने की सलाह दी थी।

‘बंगाल तन्त्र’ में राजनीतिक विरोधियों को उठाकर, ज़िन्दा, ज़मीन में नमक की एक बोरी के साथ गाड़ दिया जाता था। खेल ख़त्म, समझे? कोई खून नहीं!

कभी-कभी, हाँ खून की होली भी होती थी। ऐसा तब होता था जब कामरेड एक राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी के घर में घुसते थे, शरीर को काट कर चीरते थे और फिर उसी की माँ को अपने बेटे के खून में सने चावल खिलाते थे।

जैसा कि मैंने आपको पहले ही चेताया है, बंगाल की कहानी हलके दिल वाले ना पढ़ें।

कलकत्ता में एक प्रसिद्ध “बिजोन सेतु” है। मैं उसे अच्छी तरह जानता हूँ। जब बच्चा था तो दादी माँ के घर पर गर्मियों की छुट्टियों के लिए कलकत्ता जाता था तो अक्सर इसे पार करता था।

एक वयस्क के रूप में, मुझे पता चला कि बिजोन सेतु पर क्या हुआ था। १९८२ की एक भरी सुबह, कलकत्ता में उस बड़े पुल पर सत्रह लोगों को (आनंद मार्ग संप्रदाय के भिक्षुक और साधु) ज़िन्दा जला दिया गया। और ज़ाहिर है, आज तक कोई भी गिरफ्तारी नहीं की गई।

कलकत्ता और बंगाल के बाकी हिस्सों में ऐसे कितने प्रसिद्ध जगह हम याद कर के भूल चुके हैं जो नरसंहार के गवाह हैं।

एक और पढ़िए, आपने जादवपुर विश्वविद्यालय के बारे में तो सुना ही होगा। एक महान संस्थान जो सभी बंगालियों का गौरव है, लेकिन आपने गोपाल सेन का नाम शायद ही सुना हो। वह विश्वविद्यालय के कुलपति थे। एक बार वो कम्युनिस्ट (साम्यवादी) छात्रों द्वारा परीक्षा के बहिष्कार के खिलाफ हो गए। ठीक वहीं, जादवपुर विश्वविद्यालय के परिसर में कुलपति गोपाल सेन की हत्या हुई

अब आप समझ ही सकते हैं कि ये उदारवादी दावों से मुझे कभी बेवकूफ़ नहीं बनाया जा सकता कि जेएनयू में कम्युनिस्ट (साम्यवादी) छात्र खतरनाक नहीं हैं क्योंकि मैं बंगाल जा चुका हूँ।

फिर से क्षमाप्रार्थी हूँ। मुझे यह नहीं जताना चाहिए कि कम्युनिस्टों ने जादवपुर विश्वविद्यालय के उपाध्यक्ष की हत्या कर दी थी। यद्यपि ये हत्या अच्छी आबादी वाले कैंपस पर सरेआम हुई, इसके बावजूद एक भी भी गवाह नहीं मिला और पुलिस ने किसी की गिरफ्तारी नहीं की। सैकड़ों लोगों के सामने यह सब होने के बाद भी आज यह एक रहस्य ही है कि उपकुलपति की हत्या किसने की।

१९९३ में, कलकत्ता के प्रसिद्ध राइटर्स बिल्डिंग जो कि राज्य सचिवालय भी है, के सामने एक विरोध मार्च हुआ था। वहाँ, कलकत्ता के बीचों-बीच, पुलिस ने गोलियाँ चलाकर 13 लोगों को मार गिराया। ममता बनर्जी को तो घटना अच्छी तरह से याद होगी। आखिर वो इस विरोध में अग्रणी थीं।

राजनीतिक हिंसा का ये स्तर बंगाल में दशकों से आदर्श रहा है। कभी-कभी विरोधियों को ज़िन्दा दफन किया जाता था, कभी-कभी उनकी निर्मम हत्या कर दी जाती थी और उनका खून उनकी माँ को परोसा जाता था। कभी-कभी, मरीचझापी जैसी जगहों में, हज़ारों लोगों को सुंदरबन के एक द्वीप पर फेंककर, कुछ हफ़्तों के लिए भोजन और पानी तक काट दिया जाता था और फिर सशस्त्र पुलिस गोला-बारूद के साथ वहाँ नरसंहार करते और उन शवों को आस-पास के पानी में फेंक देते थे।

दिल की धड़कनें चल रही हैं? बस याद रखें कि ये सभी बड़े बुद्धिजीवी और बिकाऊ मीडिया, जो स्थानीय लखनऊ रेस्तरां में टुंडे कबाब के की पल-दर-पल की खबर रखते हैं, उन्होंने आपको इन कहानियों के बारे में कभी नहीं बताया क्योंकि टुंडों की कीमत और अहमियत दोनों इन बेकार जानों से कहीं अधिक है।

बंगाल में आपका स्वागत है, वही जगह जहाँ रक्त पानी से सस्ता मिलेगा।

और वैसे, अभी भी त्रिपुरा में लेनिन प्रतिमा के बारे में खार खा कर बैठे हैं? ये कहने की बात नहीं है कि त्रिपुरा में जो होता है वो बंगाल की राजनीति का ही परिणाम है।

आपसे मेरा आह्वान है कि खड़े हों और इन बुद्धिजीवियों पर सवाल उठाएँ कि ये बेईमान चुप्पी इन्होंने इतने वर्षों तक क्यों बनाए रखी? राजदीप सरदेसाई, जो कि खुद को “राजनीतिक सन्दर्भों” का एक प्रमुख प्यादा बतलाता है, वो कहता है कि कर्नाटक में २०१५ में बजरंग दल के कार्यकर्ता प्रशांत पुजारी की हत्या को उतनी तीव्रता के साथ मीडिया में दिखाने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि हत्या में “राजनीतिक संदर्भ” है। उससे पूछें कि क्या त्रिपुरा में लेनिन की प्रतिमा का गिरना समान रूप से “प्रासंगिक” है और भुला दिया जाना चाहिए?

बंगाल में बेरहमी से नरसंहार करने वाले ये लोग आपके सह-नागरिक ही थे। उनकी कहानियाँ सुनी जानी चाहिए और मैं ये अधिकार के साथ कहता हूँ कि एक अदने सी मूर्ति के बारे में हल्ला करने से पहले उन मारे गए लोगों की कहानियों के बारे में सुना जाना चाहिए। उन लोगों से पूछिए जो “साहस की पत्रकारिता” करने का दावा करते हैं, कि बंगाल में राजनीतिक हिंसा की कहानी अब तक ‘राष्ट्रीय मुख्यधारा’ का हिस्सा क्यों नहीं बनी?

मेरे लिए, सबसे अजीब क्षण हाल ही में एबीपी न्यूज पर ये एक छोटी सी खबर थी। इसमें, स्टूडियो में एबीपी समाचार रिपोर्टर और एंकर दोनों ही चिंतित दिख रहे हैं कि २००५ में मानिक सरकार के घर में एक कंकाल मिलने के बारे में बीजेपी के सुनील देवधर के आरोप शायद आधारहीन हैं।

ये अजीब है, क्योंकि कंकाल की खोज कभी विवाद थी ही नहीं; टेलीग्राफ के इस रिपोर्ट के अनुसार यह स्वीकृत तथ्य था। यह और भी विडंबना की बात लगती है जब आपको पता चलता है कि द टेलीग्राफ एबीपी ग्रुप के अन्दर ही आता है।

तो क्या हुआ था? एबीपी न्यूज ऐसा क्यों सोच रहा था कि कंकाल की खोज एक आधारहीन आरोप है?

मैं आपको बताता हूँ कि संभावित रूप से ये हुआ कि एबीपी एंकर और एबीपी रिपोर्टर ये नहीं मान पा रहे थे कि ऐसी विस्फोटक खबर इतने वर्षों तक व्यावहारिक रूप से अज्ञात रही है। कि कथित तौर पर एक नाबालिग लड़की की एक कंकाल, जो मुख्यमंत्री के घर में मिली, उसे  मीडिया इस तरह से नज़रअंदाज कर सकता है। पर सच यही है कि ऐसा ही हुआ।

दरअसल, हमारा समाचार मीडिया इस कदर भ्रष्ट और बिका हुआ है कि मीडिया में मौजूद व्यक्ति भी कभी-कभी यह सोचने में विफल हो सकता है कि वो इतना भ्रष्ट है।

(यह आलेख ‘Welcome to Bengal, where blood has flown like water‘ का हिन्दी अनुवाद है।)

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