क्या वाकई लोकतंत्र खतरे में है जज साहब?

अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों जस्ती चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, मदन लोकुर और कुरियन जोसेफ ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की कार्यप्रणाली पर गम्भीर सवाल उठाए। सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में यह पहली बार था कि किन्हीं जजों ने पद पर रहते हुए मीडिया से सार्वजनिक रूप से सुप्रीम कोर्ट के किसी आंतरिक विवाद पर बात की। चारों जजों की शिकायत मुख्यतः प्रशासनिक, प्रक्रियात्मक और तकनीकी किस्म की थी। इसमें रोस्टर प्रणाली और बेंचवार मुकदमों के बंटवारे के तरीके को लेकर नाराजगी जाहिर की गयी। यह भी कहा गया कि मुख्य न्यायाधीश बस “First among the equals” हैं और सिर्फ मुख्य न्यायाधीश हो जाने के कारण उन्हें बाकी जजों पर कोई श्रेष्ठता हासिल नहीं हो जाती।

प्रेसवार्ता में मुख्य न्यायाधीश को सम्बोधित एक पत्र भी सार्वजनिक किया गया। यह शिकायत भी की गयी कि ‘महत्वपूर्ण केसों’ की सुनवाई कुछ चयनित बेंचों को सौंपी गई जिनका संचालन ‘जूनियर जज’ कर रहे हैं और इस आरोप को ‘सीनियर जजों’ के अपमान के तौर पर प्रस्तुत करने की कोशिश की भी गयी। सबसे बड़ी बात यह कि इन सब शिकायतों के आलोक में देश में लोकतंत्र को ही ‘खतरे’ में बता दिया गया। माननीय जजों की पद की गरिमा का पूरा ध्यान रखते हुए उनके आरोपों पर कुछ सवाल मन में उठते हैं जिनकी चर्चा इस लेख में की जा रही है।

पहला सवाल तो ‘महत्वपूर्ण केसों’ की परिभाषा को लेकर है। क्या सुप्रीम कोर्ट जैसी सर्वोच्च अदालत में आया कोई भी केस कम महत्वपूर्ण हो सकता है? क्या संविधान में कहीं भी यह प्रावधान है कि सुप्रीम कोर्ट में आया हुए एक केस किसी दूसरे केस से कम या ज्यादा महत्वपूर्ण है? जवाब है नहीं! सुप्रीम कोर्ट में आई किसी याचिका को लेकर संविधान कम महत्वपूर्ण या ज्यादा महत्वपूर्ण का कोई विभेद या वर्गीकरण नहीं करता। फिर आप ये कैसे कह सकते हैं कि कथित महत्वपूर्ण केस कथित जूनियर जजों को दिए जा रहे हैं? अगर ‘महत्वपूर्ण’ केसों से आपका इशारा हाई प्रोफाइल केसों से है तब भी आपके आरोप कम से कम वर्तमान मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध कहीं नहीं ठहरते। खासतौर पर अगर हम पिछले मुख्य न्यायाधीशों के कार्यकाल में विभिन्न बेंचों को आवंटित हाई प्रोफाइल केसों की ओर नजर डालें तो आपकी प्रेसवार्ता या सात पन्नों का पत्र कोई नई बात तो नहीं कहता।

एक अंग्रेजी अख़बार की ताजा रिपोर्ट के अनुसार राजीव गांधी हत्याकांड, बोफोर्स घोटाला, बेस्ट बेकरी कांड, 2 साल से अधिक सजा पर सांसदों/विधायकों की अयोग्यता, सोहराबुद्दीन मुठभेड़, राहुल गांधी पर बलात्कार के आरोप वाली याचिका, काले धन पर राम जेठमलानी की याचिका, 2G घोटाला, कोयला घोटाला, बाबरी विध्वंस में लालकृष्ण आडवाणी का ट्रायल, आधार केस, IT Act की धारा 66A की वैधता, BCCI का संचालन, विजय माल्या प्रकरण, ये सारे के सारे बहुत हाई प्रोफाइल केस रहे और इन सबकी सुनवाई कथित ‘जूनियर’ जजों ने ही की थी न कि वरीष्ठतम पाँच (यानि कोलेजियम) जजों ने। अगर तब लोकतंत्र खतरे में नहीं पड़ा फिर आज क्या जल्दी हो गई खतरे की? क्या आपके हिसाब से वर्तमान में जो ‘जूनियर’ जज (जिन पर ‘चयनित बेंच’ शब्दों के जरिए आरोप लगाया गया) हैं, उनका कोई फैसला लोकतंत्र के लिए खतरा है? वैसे ये ‘जूनियर’ जज क्या होता है? बात जब मुख्य न्यायाधीश से आपकी तुलना की हो तब तो आप स्वयं को उनके बराबर मानते हुए उन्हें बस “first among the equals” कहते हैं। यानी आप खुद को मुख्य न्यायाधीश से जूनियर नहीं मानते लेकिन बाकी जजों को जूनियर मानकर उनकी न्यायिक सक्षमता पर सवाल खड़ा कर देने में आपको कोई संकोच नहीं।

कोई कथित महत्वपूर्ण केस कथित जूनियर जज निर्णीत नहीं कर सकता, और करे तो ये लोकतंत्र पर खतरा है, ऐसा परोक्ष निष्कर्ष क्या उन जजों की अवमानना नहीं? ध्यान रहे, ये बात आपने अदालती कार्यवाही में नहीं बल्कि खुली प्रेसवार्ता में कही है। अगर ये ‘जूनियर’ जज या चयनित बेंचें चाहें तो अपनी अवमानना का संज्ञान ले सकते हैं या नहीं? आप खुद अपने न्यायिक विवेक से सोचिए।

‘लोकतंत्र पर खतरे’ वाला जुमला तो और भी हास्यास्पद है। इसी देश में आपातकाल से लेकर शाहबानों मामले में हमने संसद को मजबूर होते हुए देखा लेकिन लोकतंत्र खत्म नहीं हुआ। इसी देश में हमने कश्मीरी पण्डितों का नरसंहार देखा, उन्हें अपने ही देश में रिफ्यूजी बन जाते देखा, उनके ऊपर हुए अत्याचारों की अभी हाल ही में फिर से जाँच के लिए दी गयी याचिका को आपके सुप्रीम कोर्ट से ही ख़ारिज होते हुए देखा लेकिन लोकतंत्र खतरे में नहीं आया। देश दुनिया के इतिहास के बड़े-बड़े घोटाले यहां अंजाम दिये गए लेकिन लोकतंत्र खतरे में नहीं आया। सांसद या विधायक ये तय नहीं करता कि अगला सांसद या विधायक कौन होगा, मुख्यमन्त्री या प्रधानमन्त्री ये तय नहीं करता की अगला मुख्यमन्त्री या प्रधानमन्त्री कौन होगा लेकिन इस देश में जज ही तय करता है कि अगला जज कौन होगा, फिर भी लोकतंत्र खतरे में नहीं आता। अपनी कॉलेजियम की अंधेर नगरी में आज तक अपने RTI की टॉर्च जलाने की भी अनुमति नहीं दी, फिर भी लोकतंत्र खतरे में नहीं आया। लोकतंत्र के खतरे का जुमला यूँ भी न उछालिए कि इसका हाल भी ‘इस्लाम खतरे में’ या ‘सेकुलरिज्म खतरे में’ या ‘इनटॉलेरेंस’ जैसा होकर रह जाए।

अब अपने ताजा बयान में जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट में कोई ‘क्राइसिस’ नहीं है। अगर क्राइसिस नहीं है जज साहब तो ये मीडियाबाजी करने का क्या औचित्य था? जस्टिस कुरियन जोसेफ कह रहे हैं कि ये मामला राष्ट्रपति के संज्ञान में इसलिए नहीं लाया गया क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के ऐसे मामलों में राष्ट्रपति की कोई संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं है। अगर ऐसा है तो ये मामला मीडिया के संज्ञान में भी क्यों लाया गया जज साहब? सुप्रीम कोर्ट के ऐसे मामलों में मीडिया की भी तो कोई संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं है।

आपकी मीडियाबाजी में सुप्रीम कोर्ट की कोई सूरत बदलने की कोशिश तो दिखी नहीं। माफ़ कीजिए मीलॉर्ड, ऐसा लगा कि सिर्फ हंगामा करना ही मकसद था।

Saurabh Bhaarat: सौरभ भारत
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