तथ्य न पूछो लिबरल से करो एजेंडे की बात

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वैचारिक रूप से न तो कोई संपूर्णतया निष्पक्ष हो सकता है और न ही किसी को निष्पक्ष होने का स्वांग करना चाहिए। निष्पक्षता सापेक्ष तो हो सकती है परन्तु सम्पूर्ण नहीं। विश्व के स्वयंभू उदारवादी लोगों कि आज सबसे बड़ी समस्या यही है कि वे दिखना तो निष्पक्ष चाहते है परन्तु उनका वैचारिक झुकाव स्पष्ट रहता है और भारतवर्ष के तथाकथित उदारवादी और बुद्धिजीवी इससे अलग हो, ऐसा नहीं है। भारत में ऐसे कई तथाकथित उदारवादी लोग जो २०१४ के चुनाव में भाजपा की विजय में अपनी हार को महसूस किया था वास्तव में वह हार उनके लिए सिर्फ वैचारिक ही नहीं बल्कि ‘आर्थिक’ भी थी। वैचारिक रूप से मात खाये हुए इस वर्ग ने एक बार फिर से अपने आप को इकठ्ठा किया और आज यह कई रूपों में हमारे सामने हैं।

दक्षिणपंथ से इनकी घृणा जगजाहिर है परन्तु समस्या यह नहीं है, समस्या तब उत्पन्न होती हैं जब दक्षिणपंथ विचारधारा की काट के लिए तथ्यों का नहीं अपितु ‘प्रोपगैंडा’ का सहारा लिया जाता है। और इस ‘प्रोपगैंडा’ युद्ध में तथ्य कोई स्थान नहीं रखते हैं। और आये दिन हम सब इस ‘प्रोपगैंडा’ युद्ध को कई स्वयंभू निष्पक्ष वेबसाइटों द्वारा प्रचारित एवं प्रसारित करते हुए देखते हैं। और मज़े की बात यह है कि ऐसे कई लोग जो खुद को सोशल मीडिया का ‘फैक्ट चेकर’ कहते हैं, ‘फ्री थिंकर’ कहते हैं उन्हें इन ‘निष्पक्ष वेबसाइटों’ द्वारा ‘प्रोपगैंडा’ युद्ध के अंतर्गत फैलाई जा रही असत्य खबरें दिखाई नहीं देती। गलती इन फ्री थिंकर लोगों कि भी नहीं है क्यूंकि ये भी उसी इकोसिस्टम में पलने वाले कीड़े हैं और ये अपनी आजीविका और जीवन के लिए उसी इकोसिस्टम पर निर्भर है तो ये उनकी कमियों को निकालेंगे नहीं।

अब आइये यह समझने कि कोशिश करते हैं कि यह ‘प्रोपगैंडा’ युद्ध कैसे चलाया जा रहा है। मेरी समझ यह कहती है कि यह ‘प्रोपगैंडा’ युद्ध तीन स्तरों पर चल रहा है। प्रथम स्तर पर ‘प्रोपगैंडा’ बिना किसी अवरोध के आसानी से फ़ैलता है। उदाहरणार्थ, एक ऐसे महाशय हैं जो पहले एक विशिष्ठ रूप ‘ख्याति प्राप्त’ चैनल पर लोगो को इंडिया का जायका बताते फिरते थे पर आजकल लोगों को ‘जन गण मन’ की बात बताते हैं। क्या वक़्त था जब इन महाशय का जीवन स्वादिष्ट पकवानों के इर्द गिर्द घूमता था पर आजकल ‘प्रोपगैंडा’ के इर्द गिर्द घूम रहा है। वैसे करते ये अपने एजेंडे की बात हैं पर कहते ‘जन गण मन’ की बात हैं। ये ‘प्रोपगैंडा’ के प्रथम स्तर पर इसीलिए हैं क्यूंकि इनके ‘प्रोपगैंडा’ को कोई काट नहीं रहा है और यह बिना किसी अवरोध के ‘प्रोपगैंडा फ़ैल रहा है। और ऊपर से ये अपने असहमत लोगों को ट्रोल और बन्दर कहते हैं पर गुलाटी खुद ही मारते फिरते हैं।

द्वितीय स्तर पर ‘प्रोपगैंडा’ पकड़ तो लिया जाता है परन्तु तब तक ‘प्रोपगैंडा’ फ़ैल चूका होता है और ऐसी खबरें चलाने या छापने के लिए माफ़ीनामा अखबार या वेबसाइट के किसी छोटे से कोने में मांग ली जाती है या फिर उस ‘प्रोपगैंडा’ को बिना माफ़ीनामे के धीरे से हटा लिया जाता है। और यहाँ ‘प्रोपगैंडा’ व्यक्तिगत स्तर पर भी फैलाया जाता है संगठन के स्तर पर भी।इस स्तर के ‘प्रोपगैंडा’ बहुत खतरनाक होते हैं क्यूंकि ये बिना किसी परेशानी के अपना एजेंडा बनाने में कामयाब हो जाते हैं। ऐसे कुछ हालिया प्रचलित ‘प्रोपगैंडा’:

तृतीया स्तर पर ‘प्रोपगैंडा’ पकड़ तो लिया जाता है परन्तु अगर पीड़ित पक्ष ‘प्रोपगैंडा’ चलाने वाले संगठन पर मानहानि का केस कर दे तो ‘प्रोपगैंडा’ चलाने वाला चैनल अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला बताते हुए स्वयं को ही पीड़ित दिखाने लगता है। और ऐसा हमने हाल ही में जय शाह के केस में देखा जहां जय शाह पर वित्तीय अनिमियता की ख़बर छापने वाली वेबसाइट पर जब जय शाह ने मानहानि का मुकदमा किया तो उस वेबसाइट के संपादक ने उसे अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला बताया और उस ख़बर को करने वाली पत्रकार ने उसे ही पत्रकरिता बता दी।

अब प्रश्न यह उठता है की इतना सारा ‘प्रोपगैंडा’ आखिर फैलाया क्यों जा रहा है? ऐसे ‘प्रोपगैंडा’ की आवश्यकता आखिर क्यों है इन्हे? तो मित्रों, ‘प्रोपगैंडा’ फैलना इनकी मजबूरी है क्यूंकि तथ्य के आधार पर ये लोग आम जनता को वर्तमान केंद्रीय सरकार के विरुद्ध तो नहीं कर सकते इसलिए आये दिन ये कुछ न कुछ ऐसा जरूर करेंगे जिससे आम जनता का मोदी सरकार से मोह भंग हो सके। इनके ‘प्रोपगैंडा’ को आम जनता के सामने एक्सपोज़ करना आवश्यक है नहीं तो 2019 में 2004 की पुनरावृत्ति हो जाएगी और वो इस देश की हित में नहीं होगा। और आखिर में अपने लिबरल मित्रों को दो पंक्तियाँ समर्पित करते हुए अपनी बात समाप्त करूँगा-
तथ्य न पूछो लिबरल से करो एजेंडे की बात।
एजेंडा सधैं जब प्रोपेगैंडा से काहे तथ्य की बात।।

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