वो आग जो धुंधली पड़ गयी

आज के दिन वो सर्द हवा ना तो वो रूमानी थी, ना ही और सर्द रातों की तरह वो रात और काली थी क्योंकि एक बेसहारा लड़की की इज्ज़त दिल्ली की सङकों पर सरेआम नीलाम हो रही थी| हवस में मदमस्त दरिंदे उस बेबस के शरीर के चीथड़े कर रहे थे और देश की सुरक्षा का जिम्मा लिए लोग चैन की नींद में खर्राटें मार रहे थे| कभी किसी के सामने ना झुका सिर अपनी इज्जत के लिए राक्षसों के सामनें हाथ जोड़ कर दुहाई माँग रहा था| उसके होंठों पर बस एक ही शब्द “मुझे छोड़ दो” और आँखों में आंसू बनकर निकलते लहू की हर एक बूँद भगवान की बजाए शैतान से आस लगा बैठी थी कि शायद उन्हें दया आ जाये और उसकी इज्जत पर लग रही आग ठण्डी पड़ जाये| पर दरिंदों को ना तो दया की तनिक भी छुअन लगी| ना ही उनके दिल में सरकार, समाज और प्रशासन का डर|

हो भी क्यूँ ना? सरकार वादें करती है, लाशों पर राजनीति तो इनका पुराना पेशा है| समाज- समाज तो एक मजाक बन गया है| प्रशासन हमेशा घटना की ‘इंक्वायरी’ ही करती रह जाती है|

जंतर -मंतर पर प्रदर्शनकारियों को ज़बरदस्ती हटाती हुई तात्कालिक मनमोहन सरकार की पुलिस

शायद यहाँ स्वतंत्रता ही गुनाह है| अपनी स्वतंत्रता को भुनाने में उसे यह कीमत चुकानी पड़ेगी, शायद यही सवाल उसके मन में गूँज रहा था|शायद वह खुद से पूछ रही थी कि क्या अपने ही देश में उसका वजूद नहीं है? सिर्फ इसलिए क्योंकि वह एक महिला है, सुरक्षित नहीं रह सहती? खुलेआम स्वतंत्र सड़कों पर चल नहीं सकती? दस लोगों के बीच बैठ नहीं सकती, जिसे हम समाज कहते है?

स्वतंत्र भारत, अतुलनीय भारत के सीने पर तलवार से वार पर वार किए जा रहे थे, और वाह रे भारत! तूने आह तक नहीं भरी! आज फिर एक द्रोपदी इज्ज़त की दहलीज़ पर बिलख रही थी पर कृष्ण नदारद थे| उसकी चीख एक चार पहिये की बस तक ही सिमट कर रह गयी| आखिर पूरा शहर बहरा हो गया था या अंधा?

खैर सवाल तो सवाल है पर हकीक़त को सवाल में बदलने से क्या मिलेगा? सवाल से जवाब मिलते है, घाव के मरहम नहीं; और फिर बिना गलती के मिले घाव के लिए मरहम का क्या वजूद? आज ना कोई सांप्रदायिक दल था जो महिला सुरक्षा के लिए ताल ठोक कर सड़कों पर नंगा नाच करते है और ना ही कोई समूह था जो खुद को महिलाओं का हितैषी बताकर सत्ता की रोटी सेंकने की फिराक में रहता है| आज थे तो सिर्फ बेबस लड़की के आंसू, तार-तार होती इज्ज़त और बेख़ौफ़ दरिंदे| अपने पुरूष मित्र के साथ घूमना उसका गुनाह था या फिर बदकिस्मती?

सवाल बहुत छोटा है लेकिन बहुत अहम|

घंटों तक उसकी रूह काँपती रहीं, बदन थरथराता रहा, खून से लथपथ वो अपनी इज्जत के लिए लड़ती रही और पाँच हैवान अपनी प्यास बुझाते रहे| देश की राजधानी के सबसे अधिक चहलकदमी वाले इलाके मुनरिका से शुरू हुई घटना सड़कों पर यूँ ही कौधती रही पर अपनी धुन में अंधे समाज को कुछ ना दिखाई दिया, ना सुनाई दिया!

‘लाईफ आफ पाई’ देखते वक्त उसने कभी नहीं सोचा होगा कि उसकी ज़िन्दगी खुद मौत से जूझ पड़ेगी| एक फिजियोथिरेपी इंटर्न, २३ वर्षीय लड़की के हालात पर पूरा देश क्या पूरा विश्व रो पड़ा लेकिन देश चलाने वाले, राजनीति और सत्ता की रोटी सेंकने में ही लगे थे! मैं पूछता हूँ कि क्या इनका ज़मीर मर गया है या फिर ये इतना बेख़ौफ़ है कि हमें मूर्ख समझ बैठे है?

रात के ९.३० से ११ बजे तक वो लड़ती रही…पर अकेली…लाचार…बेबस (माफ करना शब्द नहीं है अभिव्यक्ति के लिए)

अर्धनग्न वो दिल्ली की सड़कों पर बेसुध फेंक दिए गये थे लेकिन प्रशासन अभी भी सपनों में लीन था और हद तो तब हुई जब वो आपस में ही सीमा विवाद को लेकर लड़ने लगें और एक निर्लज्ज महिला अधिकारी को घर जाने की जल्दी थी क्योंकि उसके घर में सब्जी नहीं थी! वाह रे सुरक्षा के सिपाहियों! वाह!

सफदरजंग अस्पताल में वो जिन्दगी मौत से लड़ती रही और बाहर युवा पीढ़ी ने घटिया प्रशासन और निर्लज्ज सरकार के खिलाफ़ जंग का ऐलान कर दिया| ये वो युवा थे जो ना तो कभी उस बेसहारा लड़की को देखे थे, ना ही उससे कभी मिले थे, पर उनकी आँखों में आंसू और दिल में हजारों सवाल थे कि क्या यही है स्वतंत्र भारत? क्या यही है वो समाज, संस्कृति जिस पर हम थोथा गर्व करते है? क्या हालात सुधरेंगे या फिर बद्तर होंगे?

वो लड़ते रहे, इंडिया गेट से राजघाट के सीने पर चढ़ बैठे और पुलिस की लाठियों आंसू के गोलों के बावजूद एक कदम भी पीछे नहीं हटे|

उन युवाओं को मेरा सलाम! लेकिन फलस्वरूप हमें क्या मिला एक और झूठा वादा!

आज के हालात सबके सामने है| तब से लेकर अब तक हजारों दामिनी अपना सर्वस्व लुटा चुकी है और आग…धुँधली पड़ गयी है…आखिर क्यों?

Deepak Singh: Author, Poet at Amazonbooks ; earlier Smashwords | Online Journalist : UP, Security & Crime | Founder & Editor-in-chief: LiteratureinIndia.com | Blogger: Dainik Jagran, OpIndia |
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