राष्ट्र बनाम हिन्दू – कैसे भारतीय राजनीति ने ‘धर्म-निरपेक्षता’ की धारणा को बर्बाद किया है

किसी ज्ञानी ने कहा था, “जब आप विशेषाधिकार के आदी हो जाते हैं, तो समानता अत्याचार लगने लगता है”

इस उत्कृष्ट उद्धरण का स्मरण हो आया जब कल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण ने तथाकित वामपंथ-उन्मुक्तियों (लेफ्ट-लिबरल) में उन्मत्त उग्रता को भड़का दिया। ये भड़क एक वक्तव्य से उठी जब उन्होंने हिन्दुओं और मुस्लिमों के लिए समान अधिकारों की माँग हुई: 1) रमज़ान और दिवाली में बिजली, और 2) श्मशान और कब्रों की ज़मीनों में निष्पक्ष वितरण।

ये समाजवादी पार्टी द्वारा अल्पसंख्यक सम्प्रदाय की खुल्लम-खुल्ला मनुहारी योजनाओं की पृष्ठभूमि के तहत सामने आता है, जिसमें बिजली वितरण भी शामिल है (ये रिपोर्ट पढ़ें)। किसी भी समझदार व्यक्ति को समान अधिकारों की माँग में आपत्तिजनक क्या लग सकता है?

किन्तु, नए भारतीय राजनीति में समझदारी और तर्क का क़त्ल सबसे पहले हुआ है, खासकर मोदी के आने के बाद। इस भाषण के बाद उन्हें साम्प्रदायिक और विभाजक घोषित करने की कोशिश हुई और उनपर धार्मिक चिंगारी को भड़काने के इल्ज़ाम भी लगे। विडम्बना ये है कि उनकी इस माँग को कईयों ने सबका साथ सबका विकास के खिलाफ बताया, जबकि ऐसा है नहीं, जैसे कि इस रिपोर्ट से बिलकुल साफ़ है। ये विडंबना हास्यास्पद होती अगर तात्पर्य इतने दुखांत नहीं होते।

यह सब हमें इस प्रश्न पर ला कर खड़ा करता है कि हम ऐसी स्थिति में आखिर पहुँचे ही कैसे कि हिन्दुओं के लिए बराबरी के अधिकार की माँग पर व्यक्ति को सांप्रदायिक घोषित कर दिया जाता है? और इससे भी भयावह यह है कि, हम ‘कैसे’ इस परिस्थिति में पहुँच गए कि हमें समान अधिकार की ‘माँग’ करनी पड़ रही है? क्या यह सुनिश्चित नहीं हुआ था जब ‘धर्म-निरपेक्ष’ शब्द को संविधान में जोड़ा गया था? आखिर ऐसा क्या हो गया कि अल्पसंख्यकों की दलाली को खुलेआम बढ़ावा दिया जाता है और जब हिन्दुओं द्वारा समान अधिकारों की माँग होती है तो उन्मुक्ति क़त्ल का हल्ला रोने लगते हैं?

क्या हमने छोटे-छोटे, मासूम से लगने वाले मनुहारी इशारों को काफ़ी देर और काफ़ी दूर तक उपेक्षित किया है? या फिर कारण ये है कि वामपंथ-झुकाव वाली मीडिया ने सच बताने में इतने समय तक बेहद नरमी बरती है? या फिर ऐसा है कि भारी हिन्दू जनसंख्या की राजनैतिक यथार्थता इसका कारण है?

पृष्ठ में ऐसे कई मौके हैं जब नेताओं ने अल्पसंख्यकों को लुभाने वाले वाक्य बोले और हमारे तथाकित धर्मनिरपेक्ष-उन्मुक्तियों ने उन्हें अनदेखा कर दिया। यूपी चुनाव एक मुलायम सिंह यादव की स्मृति लौटाते हैं जो कि १९९० में मुख्यमंत्री थे, राम जन्मभूमि आन्दोलन के समय।

कुछ समय पहले ही, चुनावों से ठीक पहले, मुलायम ने स्वीकार किया कि १६ करसेवकों की गोली मारकर हत्या का आदेश देना उनके लिए बेहद पीड़ादायक था पर “मुस्लिमों के विश्वास को कायम रखने के लिए” ऐसा करना ज़रूरी था। उन्होंने यहाँ तकातक बोल दिया कि मुस्लिमों के डर को ख़त्म करने के लिए, उस समय वो इनसे भी ज़्यादा करसेवकों को मारने का आदेश दे सकते थे।

इस बात को अन्दर पेरने दीजिये कि एक पूर्व-मुख्यमंत्री, जो कि अभी राजनीति में सक्रिय है, इस बात से बिलकुल बचकर निकल गया कि उसने सिर्फ मुस्लिमों के डर को दूर करने के लिए हिन्दुओं को जान से मारने की अनुमति दी थी। इस बात को नरेंद्र मोदी के उस बयान से तुलना कीजिये जब उनके एक काल्पनिक पिल्ले का कार के पहियों के नीचे आ जाने की बात पर हल्ला खड़ा किया गया था। “भारत की कल्पना” एक ‘काल्पनिक पिल्ले’ को ‘सरकार द्वारा जीवित हिन्दुओं को मारने’ के खिलाफ प्राथमिकता दी जाती है, यही इस समय की गाथा बताता है।

और मनमोहन सिंह के उस बयान को कौन भूल सकता है जो उन्होंने लाल किले के दुर्ग प्राचीर से अल्पसंख्यकों के बारे में दी थी, खासकर मुस्लिम, जिनका भारत के संसाधनों पर पहला अधिकार है? क्या उस बेहद भड़कीले, और बताने की आवश्यकता नहीं, असंवैधानिक बयान पर, उन्हें सांप्रदायिक और विभाजक घोषित किया गया?

असंख्य ऐसी नीतियाँ जैसे कि शिक्षा का अधिकार (जो कि ‘अल्पसंख्यकों द्वारा चलाए गए स्कूलों’ को गरीब बच्चों को भर्ती ना करने की आज़ादी देता है, जिनमें ज़्यादातर वंचित हिन्दू हैं) और मंदिर प्रबन्धन पर नियंत्रण, स्पष्ट रूप से हिन्दू-विरोधी व्यवस्थाएँ हैं, जो कि केंद्र में तथाकित हिन्दू सरकार छू भी नहीं पाई है। और इनमें हाल ही के तेलंगाना सरकार के घोषणा को जोड़ें, जिसमें वो सिर्फ अल्पसंख्यक सम्प्रदाय के लोगों को आर्थिक सहायता देगी, जैसे सभी हिन्दू कार चालक बेहद समृद्ध हैं।

सम्पूर्ण राजनैतिक विस्तार में, नेताओं ने सरेआम अल्पसंख्यक लुभावन वक्तव्य दिए हैं जिनमें ममता बनर्जी और अरविन्द केजरीवाल शामिल हैं। एक बार को हम उन्हें मत बटोरने की नीति मानकर अनदेखा भी कर सकते हैं, अगर यह सिर्फ नेताओं तक ही सीमित होते तो। किन्तु हालात बेहद खराब हैं।

ये दुर्भाग्यपूर्ण और डरावना है कि हमारी न्यायिक और कानून लागू करने वाली प्रणालियाँ भी इस लुभावन डंक से डसी जा चुकी है। या फिर और भी खतरनाक स्थिति यह है कि ये नेता ऐसी परिस्थिति बनाने में कामयाब हो गए हैं जहाँ ये संस्थाएँ, जो कि न्यायपूर्ण और सौहार्दपूर्ण समाज की रीढ़ होती हैं, को इस कदर प्रभावहीन बना दिया गया है।

हाल ही में एक आरटीआई आवेदन डाला गया था जिसमें पूजा स्थलों पर उपयोग में लाए जाने वाले लाउडस्पीकर्स पर न्यायालय के आदेश पर की गई कार्यवाही के बारे में जानने की कोशिश की गई। आरटीआई से सामने आया कि मुंबई पुलिस उन मस्जिदों पर कार्यवाही करने से कतरा रही है क्योंकि उन्हें “इससे बिगड़ने वाले कानून और व्यवस्था हालातों” का डर है। फिर से, इस बात पर कोई हल्ला नहीं होता कि हमारी कानून व्यवस्था को बनाने वाली संस्थाओं को एक धार्मिक समुदाय के डर ने नपुंसक बना दिया है।

उसी तरह से, एक हाल ही के निर्णय में, मुंबई उच्च न्यायलय ने एक आदेश जारी किया है जिसमें सोसाइटीज़ में बकरियों के संहार की अनुमति दी गई है। तो अगर आप हिन्दू हैं या इस विषय में कोई भी जो अपने मकान के आसपास किसी भी पशुवध को देखकर विचलित हो सकते हैं, तो आप इस बारे में शायद ही कुछ कर सकते हैं।

अभी तक की विशिष्ट सरकारी नीतियाँ, जो कि सरकार अल्पसंख्यकों को देती आई है, हिन्दुओं को स्वीकार था, और ये सब “धर्म-निरपेक्ष” सरकार के बावजूद। यदाकदा, ज़रूर कुछ धीमी आवाजों में सवाल उठे हैं, लेकिन कुल मिलाकर हिन्दू समाज सामंजस्य में रहा है।

लेकिन ये लंबित समभाव ने स्थिति को यहाँ तक पहुँचा दिया है कि अब हिन्दुओं का बड़ा वर्ग अपने आपको कोने में संकुचित पा रहा है। मनौती का प्रभाव अब बेहद करीब से चोट करने लगा है और भय का अस्तित्व अब और उजागर दिख रहा है, जैसे-जैसे वोट बैंक राजनीति की तीव्रता चरम पर पहुँच रही है।

जब एक “धर्म-निरपेक्ष” देश में समानता की माँग को “सांप्रदायिक” घोषित किया जा रहा है, तो इस मनुहारी चालित राजनीति से लगभग शांतपूर्ण सम्प्रदाय को क्या उम्मीद हो सकती है? क्या ये तमाम हिन्दुओं के लिए एक निर्णायक मोड़ साबित हो सकता है? या फिर हम “धर्म-निरपेक्षता” की आड़ में अपना हनन करवाना जारी रखेंगे?

(यह आलेख  State vs Hindus – how Indian politics has destroyed the notion of ‘secularism’ का हिन्दी अनुवाद है।)

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