लिबरलों का इन्टॉलरेन्स और अप्रासंगिक डिब्बाबंद प्रोग्रेसिव विचारकों की छटपटाहट

ये जो प्रोग्रेसिव और लिबरल लोग हैं, उनका रिपोर्ट कार्ड बहुत ख़राब आ रहा है आजकल। ये यूनिवर्सिटीज़ में चाहते हैं कि वैचारिक विवधता बनी रहे और हर मत का सम्मान हो चाहे वो मत ‘भारत की बर्बादी’ ही क्यों ना हो। हम इनको ये ग्राऊँड भी देते हैं इनके ही बनाए हुए डिस्सेंट और फ़्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन के नाम पर।

हम लिबरल नहीं हैं इनकी परिभाषाओं के आधार पर। इन लिबरल लोगों में एक पैटर्न सा दिखने लगा है आजकल। जिस वैचारिक विवधता की ये बात करते हैं, वो तभी तक स्वीकार्य है जब तक वो इनकी विचारों के साथ सहमति रखती हो। यहाँ पर दिक़्क़त आ जाती है। इनके लिए विवधता एक ही तरह की होनी चाहिए, विविधता अगर विविध हुई तो ये तिलमिला उठते हैं।

इनकी बातों में दूसरे तरह के मतों, जो हो सकता हो कन्ज़र्वेटिव हों, रिलिजियस हो या अन्य तरह की विचारधारा का हो, के लिए एक बुनियादी घृणा या इन्हेरेंट कन्टेम्प्ट दिखता है। इनकी बातों में बाक़ी सारी विचारधाराओं को ख़ारिज कर सिर्फ अपनी विचारधारा को सही मानने और मनवाने की ज़िद दिखती है। और जो इनकी विचारधारा से परे हैं, चूँकि इन्होंने अपने पाँव मीडिया, एकडेमिया और इन्टोलीजेन्सिया में गहरे जमाया हुआ है, उनको ये सिरे से नकार देते हैं।

ये वैचारिक पतन तब से शुरू हुआ है जब से इनकी विचारधारा का इस देश और दुनिया दोनो से लोप होता जा रहा है। हलाँकि अकादमिक जगहों पर इनकी पकड़ अभी भी बनी हुई है, क्योंकि वहाँ इनको फ़ंडिंग मिल रही है। वहाँ भी फ़ंडिंग इसीलिए मिल रही है ताकि ये सत्तापक्ष के दुश्मनों पर अपने ‘एकेडेमिक’ और ‘इंटेलेक्चुअल’ ब्राँड के लेख लिखकर लगातार आक्रमण करते रहें।

अकादमिक जगहों के इतर, अब ये अपने प्रोग्रेसिव विचारों से मिलती सत्ता का सुख और एक तरह का राजाश्रय खोने के बाद तिलमिला रहे हैं। यही वजह है कि पिछले कुछ सालों में पावरके पास ना होने से इनकी शक्ति इतनी क्षीण होने लगी है कि ये अब वैचारिक लड़ाई से नीचे उतर आए हैं।

अब इनकी लड़ाई वैचारिक नहीं रही। अब लड़ाई राजनैतिक लाभ के लिए है। अब इनकी जंग सत्ता और राजाश्रयी पुलाव खाने के लिए है। और अगर पुलाव ना मिल रही हो तो ये उसकी गंध के लिए भी नंगा होने के लिए तैयार हैं। और यही कारण है कि भारत जैसे देश में तीन महीने के लिए ‘इन्टोलरेन्स’ का मौसम आता है, और फिर अचानक से खत्म हो जाता है।

ये सब अब प्रत्यक्ष होता जा रहा है। वामपंथी विचारकों (जो अपने वामपंथी पार्टी में होने मात्र से ही विचारक हैं, और वामपंथी है तो लिबरल और प्रोग्रेसिव तो अपने आप हो गए) की सत्ता के पास जाने की लोलुपता अपना मकान बड़ा करने के रास्ते से नहीं है। ये सामने वाले का मकान किसी भी तरह से गिराना चाहते हैं। जबकि इनके पास किसी भी प्रकार का हथियार नहीं है इस मकान में को छोटा दिखाने के लिए, तो अब ये नाखूनों और दाँतो से खरोंच रहे हैं।

आपको मेरी बातों में भी एक इन्हेरेंट कन्टेम्प्ट दिख रहा होगा, पर जैसा कि मैंने पहले ही कहा, मैं ना तो वामपंथी हूँ ना ही लिबरल! तो मुझे लिबरल होने का चोगा नहीं पहनना पड़ता।

क्या ये ग़ज़ब बात नहीं है कि पिछली कुछ ग़ैर-वामपंथी सरकारों को ये अपना समर्थन देते रहे हैं सिर्फ ये कहकर कि वो सेकुलर हैं। जबकि ये सेकुलर का तमग़ा कोई आधिकारिक या सिद्ध करने योग्य तमग़ा नहीं है। ये इन्होंने ख़ुद ही बनाया है, चाहे इनके ‘नए साथियों’ ने इस शब्द विशेष का उपयोग सिर्फ और सिर्फ सत्ता पाने के लिए किया है। अगर ऐसा नहीं होता तो देश में ना तो ग़रीबी होती और ना ही मुसलमानों की ये हालत होती कि उन्हें हर जगह झुंडों में रहना पड़ रहा होता और बार बार अपने देशभक्त होने का सबूत देना होता।

इन लिबरल लोगों के दोहरे मानदंड तब और प्रत्यक्ष हो जाते हैं जब ये उस झुंड से मिल आते हैं जहाँ कोई विचार इनसे दूर दूर तक नहीं मेल खाते। इनका भविष्य उस व्यक्ति के पाँव छू आता है जिसने उन्हीं की पार्टी के बेहतरीन छात्र नेता चंद्रशेखर को सरे-चौराहे गोलियों से छलनी करवाया था।

ये इनका डेस्पेरेशन दिखाता है। ये वो समय है जब ये छटपटा रहे हैं एक्सेप्टेन्स के लिए। यही कारण है कि तब का लिबरल आज सबसे ज़्यादा इन्टोलरेंट हो गया है। तब का लिबरल जो अपने को प्रोग्रेसिव कहता था और एक स्तर का वाद-विवाद करता था, वो अब यूनिवर्सिटी में ‘मुज़फ़्फ़रनगर बाक़ी है’ की स्क्रीनिंग की माँग डिफ़्रेन्स ऑफ़ ऑपिनियन के नाम पर करता है, पर बुद्धा इन अ ट्रैफ़िक जैम के स्क्रीनिंग से इतना डर जाता है कि विरोधियों पर मोलेस्टेशन का चार्ज लगा देता है।

अब इस पर मंथन की भी गुँजाइश, या यूँ कहिए ज़रूरत, ही नहीं है। अब इनके पत्ते खुल गए हैं। अब इनके फंडामेंटल्स में दूसरी विचारधारा को लेकर इन्टोलरेन्स है। और ये बार बार दिखता है कि इनके लिबरल होने का वैचारिक लचीलापन उतना ही है जितना काँच को मोड़ने की कोशिश में होता है। वो टूट कर बिखर जाता है।

तात्पर्य यह है कि भारत या विश्व का लिबरल, अब लिबरल नहीं रहा। अब वो अल्ट्रा-कन्ज़र्वेटिव हो चुका है। इनकी प्रोग्रेसिव विचारधारा का बहाव हर पावर सेंटर से निकाल फेंके जाने के बाद रूक गया है। अब इनमें वैसे बैक्टीरिया आ गए हैं जो लगातार इनको गंदा करते जा रहे हैं। एक समय पर ग़रीबों के हक़ की बात करने वाले उन्हीं के पैसों को लूटने वाले घोटालेबाज़ों के साथ धुनी रमाते नज़र आते हैं।

अजीत भारती: पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी
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