भीड़ का मिज़ाज

भीड़ की सबसे अच्छी बात ये होती है के इसके पास एक लक्ष्य होता है, एक Common Goal| इंसान भले अच्छा हो या खराब, भीड़ इसमे कोई भेदभाव नही करती, बस एकजुट होकर लग जाती है अपना मिशन पूरा करने मे|

अब चाहे वो Sale Season मे बॅग भरके शॉपिंग करना हो या Churchgate से Borivali तक का सफ़र| Facebook पे वैचारिक श्रेष्ठता सिद्ध करना हो या आंदोलन के नाम पे अराजकता फैलाना| या फिर लंच टाइम पे ऑफीस के सामने वाली टपरी पे जाके चाय-सुत्टा पीना|

भीड़ हर जगह होती है| इसका अपना कोई भाव नही होता| ये प्रतिभागियों की भावनायो की एक गूँज होती है| अब ये गूँज जोश भी हो सकती है और खुशी भी, गुस्सा भी हो सकती है और आक्रोश भी, बदमाश भी हो सकती है और हुड़दंग भी|

कहने का मतलब है के जैसे आग उसी तरफ फैलती है जिस ओर की हवा तेज होती है – उसी प्रकार जो भाव प्रतिभागियों मे सबसे उग्र होता है, भीड़ उसी का जयकारा करती है| बाकी सब भाव बेमायने हो जाते है और उनसे जुड़ी सभी नैतिकतायें खारिज|

हरयाणा मे कोटे (Jat Quota) की माँग को लेके तोड़ फोड़ हुई तो उसी की आड़ मे बलात्कार भी| जवाबदेही किसी की नही है क्यूंकी ये भीड़ ने किया न कि किसी व्यक्ति विशेष ने| Twitter पे आए दिन किसी ना किसी पत्रकार या सेलेब्रिटी को यही भीड़ डराती है| आप को पसंद नही तो ब्लॉक कर दीजिए, भीड़ नया फेक अकाउंट बनके आ जाएगी| Bengaluru के पास Tanzania की बेकसूर लड़की के साथ बदसलूकी हुई, क्यूंकी वो भीड़ का न्याय था|

यह भीड़ का सबसे डरावना पहलू है| आप इसको क़ानून के कठघरे मे खड़ा नही कर सकते क्यूंकी इसका कोई स्वरूप नही है| यह प्रतिभागिओं की सोच और समझ का उत्पाद है जिसपर किसी का नियंत्रण नही| इसका मतलब ये नही है के भीड़ हमेशा ग़लत ही होती है| इतिहास पढ़े तो पता चलता है के कैसे भीड़ ने एक भाव के तूफान मे बहके बड़े बड़े सकारात्मक परिवर्तन कर दिए, कितनी नयी शुरुआतें और ना जाने कितने लोगों को एक नयी उम्मीद की झलक दिखाई| लेकिन जहाँ ये हुआ वही अराजकता भी आई, लोगों ने भीड़ की आड़ मे अपने पर्सनल अजेंडे भी पूरे किए|

कहते है के गेहू के साथ घुन तो पिसता ही है| लेकिन क्या गेहू के साथ घुन का पीसना सही है? हरयाणा मे महिलाओं का यौन शोषण, Twitter पे लोगो का मानसिक शोषण और Bengaluru मे Tanzanian लड़की का शारीरिक शोषण सही है?

मैं रोज एक छोटी भीड़ के साथ सड़क पार करता हूँ| हरे सिगनल पे तेज़ी से आती गाड़ियाँ हमारी भीड़ के सामने बेबस होती है| अपनी कार मे बैठे “बड़े लोग” रोज गुस्सा और Best की बस का ड्राइवर आग बाबूला होता है| लेकिन भीड़ रुकती नही क्यूंकी उसे जल्दी है, मुझे जल्दी है| मैं खुश हूँ क्यूंकी ऑफीस २ मिनिट पहले पहुँच जाता हूँ|

लेकिन ये सोचता रहता हूँ के उस दिन क्या मैं इतना खुश होऊँगा जब यही भीड़ आगज़नी कर रही होगी अगर इसका कोई नन्हा सिपाही सड़क पे शहीद हो गया तो?

धर्म, जाती, क्षेत्र और राष्ट के नाम पे राजनीति तो चलती ही रहेगी| ये सब बड़े मुद्दे है जो सरकारे गिराते और बनाते है, लेकिन क्या हमे नही चाहिए के एक समाज के रूप मे हम आत्मनिरीक्षण करे?

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