यूं गांव हमारा सुन्दर है, कुछ लोग यहाँ के बिगड़े है,
जयचन्द उन्हें तो प्यारे हैं, आजाद-भगत मर जाते हैं।
लूट रहे है धन-संपदा, महलों में वो रहते हैं,
झूठे बलिदान की गाथा हर चौराहों पर कहते हैं।
परित्यागी-योगी की काया को भोगी-पापी क्या जाने,
लूट-पाट के अंगन में जो पांव पसारे सोते हैं।
बन्दर बाँट करे आपस में ये उनकी मंशा है,
जूठन की थैली लाते हैं जब द्वार तुम्हारे आते हैं।
कुम्भकर्ण के साथी हैं बस खाते-सोते रहते हैं,
हर पांच दिनों पर दरबाजे पर गंद छोड़ने आते हैं।
वो न्याय तुम्हें क्या देगें जो टोटी भी ले जाते हैं,
मौका मिलते ही छुट्टी पर इटली-फ्रांस चले जाते हैं।
कांटा क्या चुनेगे पथ के वो खूनी थाली में खाते हैं,
खून सने हाथों से चेहरा धो इतराते हैं।
खूनी पंजों संग जो गांव में घूमा करते हैं,
मौका मिलते ही नोचेगे उन बच्चों को जो छोटे हैं।
कृष्ण नहीं कंश है, सबका दोहन-शोषण करते हैं,
द्वापर के नारायण से त्रेता का अन्तर करते हैं।
बुद्ध को क्या जाने जो भ्रष्ट बुद्धि के मालिक हैं,
सोने के हौदा में बैठ-लेट धर्मा की बात सुनाते हैं।
ये अवसर अब अंतिम है जो हाथ तुम्हारे आया है,
दशकों पीछे रह जायेगे उत्थान प्रगति जो पाया हैं।