प्रिंस ऑफ कोलकाता से लेकर क्रिकेट के सबसे बड़े पद पर काबिज़ होना; हर मामले में दादा बेजोड़ है। जिनका कोई जोड़ नहीं
एक ऐसा कप्तान जिसमें भारतीय टीम के इज्ज़त के साथ नहीं किया कभी समझौता। एक ऐसा कप्तान जिसने न सिर्फ़ भारतीय क्रिकेट टीम को विदेशों में जीतना सिखाया बल्कि आँख में आँख डाल कर बात कैसे किया जाता है यह भी बताया। एक ऐसा खिलाड़ी जिसने भारतीय क्रिकेट टीम के नक्शे कदम को ही बदल कर रख दिया। एक ऐसा जुझारू कप्तान जिसके लिए टीम की जीत से कहीं ज्यादा उसकी आन, बान और शान महत्वपूर्ण हुआ करती थी। ऐसा मेंटर जिसने कप्तानी के साथ साथ टीम को एक राह भी बताई कि आखिर मैच कैसे जीता जाता है। एक ऐसा खिलाड़ी जिसने टीम के लिए अपनी बैटिंग पोजिशन भी दूसरे खिलाड़ी को हंसते हुए दे दी।
जी हां! ऐसी ही ढ़ेर सारी खूबियां और किस्से है भारत के पूर्व कप्तान और वर्तमान में विश्व की सबसे बड़ी क्रिकेट बोर्डों में शुमार भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष सौरव चंडीदास गांगुली के बारे में। आप भी सुनते सुनते थक जाएंगे लेकिन इनकी खूबियों के बारे में बहुत सारे अनसुनी किस्से कभी खत्म ही नहीं होंगे।
जो लोग साल 1996 से लेकर 2005 के दौर में क्रिकेट को बहुत क़रीब से देखें होंगे तो उन्हें पता चला होगा कि आखिर गांगुली ने देश और अपनी टीम के लिए क्रिकेट में क्या किया है? वैसे तो गांगुली ने वनडे इंटरनेशनल डेब्यू साल 1992 में ही किया था लेकिन कुछ कमाल नहीं कर पाने की वजह से उन्हें ज्यादा मौका नहीं मिल पाया। जिंदगी में ऊपर नीचे तो लगा रहता है लेकिन इंसान वहीं सफल माना जाता है जो इससे ऊपर उठकर मेहनत की बदौलत अपने लिए नई मुकाम हासिल करें।
गांगुली चर्चा में तब आएं जब साल 1996 में उन्हें इंग्लैंड दौरे पर टेस्ट क्रिकेट टूर्नामेंट के लिए चुना गया था। वाकया भी कुछ ख़ास था। मैच था क्रिकेट का मक्का कहें जाने वाले लॉर्ड्स के मैदान में। यह मैदान इसलिए भी गांगुली के लिए ख़ास था क्योंकि यहां उनकी कई यादें जुड़ी हुई है। अपने पहले ही डेब्यू मैच में उन्होंने शतक लगाकर यह जता दिया कि अभी उन्हें भारतीय क्रिकेट टीम में इतिहास रचना है। गांगुली द्वारा 136 रन की पारी आज भी लॉर्ड्स के मैदान पर किसी डेब्यू किए गए खिलाड़ी के रूप में सबसे ज्यादा है। और हुआ भी वहीं। उन्होंने धीरे धीरे कर के एक से बढ़कर एक नए कीर्तिमान स्थापित किए। सबसे ख़ास बात यह थी कि उनके रिकॉर्ड से ज्यादा उन्हें टीम समर्पण के लिए जाना जाता है। यह वहीं लॉर्ड्स का मैदान है जहां साल 2002 में नेटवेस्ट ट्रॉफी में भारत ने रोमांचक मुकाबले में युवराज सिंह और मोहम्मद कैफ की जोड़ी की बदौलत वह ट्रॉफी अपने नाम की थी। फिर क्या था? गांगुली ने उसी लॉर्ड्स के मैदान के बालकनी से अपनी शर्ट खोलकर लहरा दी थी। इसके बाद वह खूब चर्चा में भी आएं। उन्होंने कहा कि भारत दौरे पर जब इंग्लैंड के खिलाड़ी फ्लिंटॉफ ने अपनी शर्ट लहराई थी तो उसी दिन से उनके दिमाग में यह था कि इंग्लैंड में यह कारनामा क्यों न किया जाए? यह तो थी लॉर्ड्स से जुड़ी हुई उनकी कुछ ख़ास यादें।
साल 1997 में जाकर उनके बल्ले से वनडे इंटरनेशनल में पहला शतक लगा। मौका था श्रीलंका के ख़िलाफ़। उन्होंने 113 रन की पारी खेली। इसके बाद उन्होंने लगातार चार मैन ऑफ द मैच का खिताब जीता जिसमें पाकिस्तान के ख़िलाफ़ सहारा कप भी शामिल था। सुर्खियों में दादा तब आएं जब भारत की टीम 1999 वर्ल्ड कप में इंग्लैंड गई। वैसे यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि इंग्लैंड और वहां का मैदान दोनों गांगुली के लिए कुछ ज्यादा ही मेहरबान रहा। यहां फिर से उन्होंने श्रीलंका के साथ वर्ल्ड कप मैच में न सिर्फ शतक लगाया बल्कि 183 रन की रिकॉर्ड पारी खेली। यह पारी इसलिए भी ख़ास मानी जाती है क्योंकि वर्ल्ड कप के इतिहास में यह दूसरी सबसे बड़ी पारी और भारत की तरफ से सबसे बड़ी पारी थी। यह वही पारी है जिसमें गांगुली ने द्रविड़ के साथ मिलकर 318 रन की साझेदारी की थी और वर्ल्ड कप के इतिहास में यह आज भी सबसे ज्यादा साझेदारी करने वाली जोड़ी के रूप में दर्ज है।
दादा इतने से ही कहां मानने वाले थे। उनके लिए तो कुछ और ही लिखा था। साल 2000 का समय। भारतीय टीम एक तरह से हाशिए पर थी। कई शानदार खिलाड़ी टीम से बाहर हो चुके थे। मैच फिक्सिंग का साया पूरी टीम पर मंडरा रहा था। अजय जडेजा जैसे दिग्गज़ खिलाड़ी भी मैच फिक्सिंग की जाल में फंस चुके थे। ऐसी स्थिति में टीम का कप्तान किसे बनाया जाए? सचिन ने भी स्वास्थ्य संबंधी मामलों का हवाला देते हुए टीम का कप्तान बनने से इंकार कर दिया। ऐसे में अगला कप्तान कौन यह बेहद ही अहम सवाल था? फिर क्या था टीम के पहले से उपकप्तान होने के नाते जिम्मेदारी मिली बंगाल के शेर और दादा के नाम से मशहूर सौरव चंडीदास गांगुली को। उन्होंने भी इस मौके को खूब भुनाया। न सिर्फ़ उन्होंने टीम की कप्तानी संभाली बल्कि उन्होंने भारतीय टीम को एक नई दिशा और दशा प्रदान की। आंख से आंख मिलाकर खेलना सिखाया। अंत अंत तक हारे हुए मैच को अपनी तरफ़ खींच कर उसे जीतना सिखाया। नए खिलाड़ियों को न सिर्फ़ मौक़ा दिया बल्कि उनमें आत्मविश्वास का भी संचरण किया। विरोधी टीम के स्लेजिंग का जवाब उनके ही भाषा में देना सिखाया। दूसरी टीम आंख उठाने से पहले एक बार जरूर सोचती थी कि यह गांगुली के समय वाली भारतीय टीम है जो ईंट का जवाब पत्थर से देना जानती है।
एक ऐसा ही वाकया याद आता है जब उस समय ऑस्ट्रेलिया के कप्तान स्टीव वा हुआ करते थे। उस समय की ऑस्ट्रेलिया टीम काफी मजबूत हुआ करती थी और स्टीव वा का नाम काफी इज्ज़त से लिया जाता है। वह गांगुली ही था जिसने टॉस के समय स्टीव वा को इंतजार करवाया। टॉस के समय हमेशा पहले स्टीव वा जाते थे फिर पीछे से गांगुली आते थे। कहा जाता है कि ऑस्ट्रेलिया के आत्मविश्वास को तोड़ने के लिए गांगुली ऐसा किया करते थे। टीम के लिए समर्पण इतना था कि एक बार जो ठान लिए वो जिद्द की तरह पूरा किया करता था।
साल 2001 का ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ़ ईडन गार्डन पर हुआ टेस्ट मैच किसे नहीं याद होगा। जब पूरी सेलेक्शन टीम हरभजन सिंह के ख़िलाफ़ थी तो उस वक्त दादा की जिद्द की वजह से ही उनको टीम में चुना गया। इसके साथ ही दूसरी पारी में वीवीएस लक्ष्मण को तीसरे नंबर पर भेजना भी दादा का ही प्रयोग था। फिर जो हुआ वो इतिहास बनकर रह गया। भारत न सिर्फ़ वह मैच हारती बल्कि फॉलोऑन से हार बहुत बड़ी हार हो सकती थी। लेकिन गांगुली के फ़ैसले की वजह से ऑस्ट्रेलिया टीम का मंसूबा सफल नहीं हो पाया। इसी मैच में हरभजन सिंह ने हैट ट्रिक लेकर इतिहास रचा और फॉलोऑन खेलते हुए लक्ष्मण और द्रविड़ की जोड़ी ने कमाल कर दी और लक्ष्मण ने अकेले 281 रन की पारी खेली। इस मैच में हरभजन ने कुल 13 विकेट लिए और भारत यह मैच जीत गया। इसी तरह ऑस्ट्रेलिया दौरे पर जब सेलेक्टर अनिल कुंबले को टीम में जगह नहीं दे रहे थे तो गांगुली की जिद्द की वजह से उन्हें चुना गया और फिर उस दौरे पर सबसे ज्यादा विकेट लेने वाले गेंदबाजों में अनिल कुंबले सबसे ऊपर थे।
जब पूरे देश को साल 2003 के वर्ल्ड कप में भारतीय टीम से कोई आस नहीं थी, उस परिस्थिति में गांगुली ने भारतीय टीम को वर्ल्ड कप के फाइनल तक तक सफ़र पूरा करवाया और सिर्फ ऑस्ट्रेलिया टीम से उन्हें हार का सामना करना पड़ा। उस समय के क्रिकेट और अभी में क्रिकेट में काफ़ी अंतर है। उस समय हार का मतलब होता था कि आपको देश का आक्रोश झेलना पड़ता। यह आक्रोश न सिर्फ़ विरोध जता कर किया जाता था बल्कि क्रिकेटरों के घरों पर हमला, कुछ फेंकना आदि शामिल हुआ करता था। बहुत अंतर हुआ करता था उस समय के क्रिकेट में और अब के क्रिकेट में।
गांगुली के समय में परिवर्तन तब आया जब उनके ही कहने पर ग्रेग चैपल को भारतीय टीम का कोच बनाया गया। ग्रेग चैपल ने पूरी भारतीय टीम में फूंट डालने की भरपूर कोशिश की जिसमें वह कुछ हद तक सफल भी हुए। जिसका शिकार भारतीय टीम को 2007 के वर्ल्ड कप में लीग मैच में ही हारकर बाहर होना पड़ा। गांगुली को यह बात अच्छे से पता थी कि यदि ग्रेग चैपल भारत में और दिन रुक गया तो यह टीम को बर्बाद कर देगा। ग्रेग चैपल से गांगुली की तनातनी भी जगजाहिर है। वह वाकया आज भी याद करते हुए ताज़ा हो जाता है जब खुलेआम दादा ने चैपल को ऊंगली दिखाई थी। क्रिकेट के मैदान से लेकर बाहर तक गांगुली ने टीम को कभी झुकने नहीं दिया। हमेशा इज्जत के साथ खेलना सिखाया।
यह गांगुली का ही देन है कि वीरेंद्र सहवाग आज सहवाग बन पाया। अपनी पोजिशन तक उन्होंने सहवाग को ओपनिंग करने के लिए दे दी। फिर उसके बाद जो हुआ वह भी इतिहास के पन्नों में दर्ज है। सहवाग जैसा ओपनिंग बैट्समैन शायद ही दुनिया में कोई हो? यह था टीम के लिए गांगुली का समर्पण। वह चाहें युवराज हो या फिर कैफ, वह चाहें हरभजन हो या आशीष नेहरा, ज़हीर खान हो या गौतम गंभीर सभी के हुनर को पहचानने का काम किया गांगुली ने। यहीं नहीं धोनी को टीम में लाने के लिए भी गांगुली ने काफी मशक्कत की। फिर तो दुनिया जानती है कि धोनी ने क्या किया। कुल मिलाकर कहा जाएं तो साल 2011 में भारत के विश्व विजेता बनने के पीछे दादा का बहुत बड़ा हाथ है। अगर वह न होते तो शायद 2011 में आधा से ज्यादा खिलाड़ी उनके द्वारा बनाए गए टीम का हिस्सा न होते और शायद भारतीय टीम जीत नहीं पाती। क्योंकि टीम को बनाने में काफी दिनों की मेहनत काम आती है जो गांगुली ने बख़ूबी अदा की। उतार चढ़ाव तो जीवन का हिस्सा है। इत्तेफ़ाक देखिए उसी गांगुली को कभी टीम में वापसी करने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़े और आज दादा उसी बोर्ड के अध्यक्ष है जो खिलाड़ी को चुनती है।
भारत के पूर्व कप्तान और बीसीसीआई के अध्यक्ष सौरव गांगुली को जन्मदिन की बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं।
हैप्पी बर्थडे दादा।