पहले जब भी समाचारों में ये सुनता था कि कश्मीर में इतने आतंकवादी मारे गए, भारत ने पाकिस्तान को मुँहतोड़ जवाब दिया, या फिर ये सुनता था कि भारत ने चीन का अहंकार तोड़ा, तो दिल को एक सुकुन सी मिलती थी, और लगता था कि देश सुरक्षित हाथों में है। मोदी जी और अमित शाह जी की वो गर्जना दिल में एक जोश सी भर देती थी कि आज का भारत दुश्मनों की आंखों में आंखों डाल कर बात करता है, और यहाँ तक की उनकी आँखें निकालने की भी दम रखता है।
चौंकिए मत मैं व्याकरण भुला नहीं हूँ, और न ही उपरोक्त बातें इतिहास की बातें है। बस यूँ समझिये कि एक गुब्बारा था गलत फेहमी का जो कुछ लोगों ने फोड़ दिया। हम वहाँ इस बात कि खुशियाँ मनाते रहे कि हमारी सेना ने पाकिस्तान और चीन को मुँह तोड़ जवाब दिया, और इधर हमे पता ही नहीं चला कि कब पाकिस्तान और चीन ने हमारे देश में घुस कर आक्रमण कर दिया। हम वहाँ पाकिस्तान पर की गयी सर्जिकल स्ट्राइक का जश्न मना रहे था किन्तु हमे क्या पता था की पाकिस्तान और चीन ने ना जाने कितने बार भारत में सर्जिकल स्ट्राइक किया। और उसमे में भी दिल तोड़ने वाली बात तो ये कि पाकिस्तान और चीन ने जो कुछ भी किया उसमे पैसा भारत का हीं लगा। ये बात तो कुछ ऐसी ही हो गयी कि जैसे किसी ने खुद की ही मौत की सुपाड़ी किसी गुंडे को दी हो।
अब आप सोंच रहे होंगे लेखक पगलाई गवा है। बौराहा गाँजा फूंक कर लिख रहा क्या। ये सवाल भी मन में उठ रहा होगा कि इतनी बड़ी बात हो गयी और सुधीर चौधरी, अर्नब गोस्वामी, और रोहित सरदाना जैसे राष्ट्रवादी पत्रकारों को कुछ पता भी नहीं चला। आखिर कैसे !
आप मुझे महामुर्ख कह सकते हैं, और शौक से कहिये किन्तु तब तक ही जब तक आप चीजों को भौतिक नजरिये से देखते हैं। पर सुनिए साहब, एक गुजारिश करता हूँ कि बस एक बार चीजों को वैचारिक नजरिये से देखने की कोशिश करिये। चलिए साहब, आप शायद कनफुजिया गए होंगे, तो मैं ही आपकी वैचारिक नजरिया खोलने में थोड़ी मदद कर देता हूँ।
पहले तो हमे ये समझना होगा कि मैं यहाँ आंतरिक आतंकवाद या फिर वैचारिक आतंकवाद की बात कर रहा हूँ न कि किसी भौतिक आतंकवाद की। अभी ज्यादा समय भी नहीं हुआ जब दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, और कुछ अन्य विश्वाविद्यालयों में, और देश के कुछ अन्य हिसों में भी “भारत तेरे टुकड़े होंगे” “अफ़ज़ल हम शर्मिन्दा हैं, तेरे कातिल जिंदा हैं जैसे नारे लगते थे। अभी ज्यादा समय नहीं हुआ जब अपने ही देश के कुछ हिसों में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगा करते थें। अभी हाल कि ही घटना है जब चीन के सामानों के बहिष्कार की लहर चल रही थी तो अपने ही देश के कुछ लोग चीन की वफादारी में लगे थें। हाँ ये बात अलग है कि अब वैसे लोग जेल जा रहे है जो अच्छी बात है। किन्तु एक सवाल मन में उमरता है जो मैं आपसे पूछता हूँ। अगर आपके घर में कॉकरोच हो जाए तो क्या आप एक एक कॉकरोच को पकड़ कर मारेंगे या फिर उन जगहों पर उन्हें भगाने वाली दवा छिड़केंगे जहाँ से वे आते हैं। जाहिर सी बार है कि आप दुसरा विकल्प ही चुनेंगे क्योकि किसी मुसीबत को खत्म करने का सही तरीका उसे जड़ से खत्म करना है। किन्तु अब बड़ा सवाल ये है कि आखिर इन सब का जड़ कहाँ है। क्या जेएनयू जैसे संस्थान जिम्मेदार हैं ! नहीं साहब, हम किसी सस्थान को दोष नहीं दे सकते। और वैसे आप कितने सस्थान बंद करवाओगे 100, 200, 1000, लाख या फिर उससे भी ज्यादा। तो फिर तो आप भी एक एक कॉकरोच पकड़ कर मारने वाली बेवकूफाना हरकत करोगे।
साहब बुरा मत मानना, लेकिन दोष हमारी शिक्षा प्रणाली में है, और कुछ दोष कुछ महान राजनितिक पार्टियों में भी। माफ करना साहब, मै अर्णव गोस्वामी नहीं हूँ जो सीधा नाम लूंगा। क्योकि पता नहीं कहाँ कहाँ एफआईआर हो जाए। कामकाजी आदमी हूँ साहब, थानों के चक्कर नहीं काट सकता।
वैसे कमाल है न साहब, बच्चे अंग्रेजी तो खूब बोलते हैं, newton का नियम हो या फिर पैथागोरस का सिद्धांत हो, हर समय जुबान पर रहती है, किन्तु जब बात देश के प्रति नजरिये की आए, देश के विकाश में योगदान की आये तो जुबान थोड़ी अटक जाती है। वैसे गलती उनकी भी नहीं है। अब देश भक्ति तो सिलेबस में होता नहीं तो वो भी बेचारे क्या करें! और मजाक की बात तो ये है कि थोड़ी बहुत देश भक्ति इतिहास और नागरिकशास्र के माध्यम से सिखाई भी जाती है तो उस समय जब बच्चे माँ बाप के पैसों पर पलते हैं, और वो भी उद्देश्य देश भक्ति सिखाना नहीं बल्कि 90 95% स्कोर करवाना होता है। और जब बच्चे शिक्षा के उस चरण में पहुंचते हैं जहाँ से करियर की नींव रखी जाती है, तो वंहाँ देश भक्ति का कोई सिलेबस नहीं होता। ऐसे में कोई ताज्जुब वाली बात नहीं है कि कल को कुछ लोग इस देश में शिक्षा लेकर इसी देश की तबाही के सपने सपने देखने लग जाएँ। हालाँकि मुझे पूरा भरोषा है कि सरकार, सेना और पुलिस वैसे लोगों से निपटने में सक्षम हैं, किन्तु सवाल ये है कि हम वैसे लोग बनाते ही क्यों है जिनसे निपटना पड़े। क्यों न एक ऐसा विषय हमारी शिक्षा का एक अटूट अंग हो जिसमे बच्चे देश और देश में होने वाली घटनाओं पर अपने विचार रख सकें। हालांकि ये विषय नौकरी तो नहीं दिला सकेगा किन्तु इसका सबसे बड़ा लाभ ये होगा कि उमर खालिद जैसों पर देश का पैसा बर्बाद नहीं होगा।
वैसे हमारे बीच एक खास प्रजाति रहती है जिसे कुछ बुद्धिजीवी “भटके हुवे बच्चे” कहते हैं। इस प्रजाति की कुछ खास पहचान होती है जैसे सेना पर पत्थर मारना, देश के दुश्मनों का साथ देना आदि। हर कोई “भटका हुआ बच्चा” नहीं बन सकता। इसमें काफी मेहनत लगती है।
मुझे तो लगा था कि कहीं अर्णव को भी “भटका हुआ बच्चा” न बना दिया जाए। फिर मेरे विवेक ने मुझसे कहा कि बेटा “भटका हुआ बच्चा” बनने के लिए बेइजत्ती देश की करनी है न कि ये उपाधि देने वाले की, और अर्णव ने तो सब काम उलटा कर दिया। शायद वो भी कनफुजिया गए होंगे। अब भविष्य में कोई न कन्फुजियाए इसलिए “भटके हुवे बच्चे” की एक शपष्ट परिभाषा तय होनी चाहिए।
अब कुछ लोग खुद को आतंकवादी कहने पर बवाल खड़ा न कर दें इसलिए मैं यहाँ शपष्ट कर दूँ कि मैं यहाँ वैचारिक आतंकवाद अथवा आतंरिक आतंकवाद की बात कर रहा हूँ। इसमें देश विरोधी विचारों के बम ब्लास्ट किए जाते हैं जिसका असर न सिर्फ कई लोगों पर बल्कि कई सदियों तक होता है।