आत्मा है या नहीं?
यह एक अनबूझ पहेली है। सिद्धार्थ गौतम के बाद आधुनिक विज्ञान ने भी आत्मा के अस्तित्व को सिरे से नकार दिया।
मैं स्वयं एक यांत्रिक अभियंता (Mechanical Engineer) हूँ। अपनी अभियांत्रिकी (Engineering) की पढ़ाई के दौरान मैंने एक विषय पढ़ा – ऊष्मागतिकी, और अब मेरा अंध्ययन केंद्रित है धर्मग्रंथों पर।
इन दोनों विषयों का अध्ययन और सूक्ष्म विश्लेषण करने पर दोनों में मुझे आश्चर्यजनक साम्यता का अनुभव हुआ। आज के पोस्ट का उद्देश्य इस समानता को सबके सामने रखना है।
ऊष्मागतिकी का पहला नियम कहता है – ऊर्जा को न तो बनाया जा सकता है न ही नष्ट किया जा सकता है, केवल इसका रुप बदला जा सकता है। आत्मागतिकी कहता है – आत्मा न तो जन्म लेती है और न ही मरती है, केवल शरीर बदलती है।
ऊर्जा को न तो शस्त्र काट सकता है, और न अग्नि जला सकती है। दुख संताप नहीं होता और न ही हवा सुखा सकता है। ठीक यही कथन आत्मा पर लागू है। गीता में कहा गया है:
नैनं छिन्दंति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः
न चैनंक्लेदयंत्यापो, न शोषयति मारुतः
ऊर्जा को केवल तभी अनुभव किया जा सकता है जब यह एक स्थान छोड़ता है या परिवर्तन करता है और आत्मा पर भी यह कथन लागू है।
किसी वस्तु से ऊष्मा (ऊर्जा का एक रूप) खींच लेने पर वस्तु ठंडी हो जाती है। आत्मा के बिना शरीर भी ठंडा हो जाता है।
ऊष्मागतिकी का दूसरा नियम कहता है कि ऊर्जा का सतत प्रवाह केवल उच्च से निम्न की ओर हो सकता है, निम्न से उच्च की ओर ले जाने के लिए साधन की आवश्यकता होता है और ठीक यह तथ्य आत्मा पर लागू है। आनंद का प्रवाह सतत रूप से परमात्मा से आत्मा की ओर होता है। आत्मा से परमात्मा की ओर जाने के लिए साधना की आवश्यकता होती है।
किसी वस्तु को शुद्ध करने के लिए तपाना एक भौतिक क्रिया है और आत्मा को शुद्ध करने के लिए तप करना एक आध्यात्मिक क्रिया है।
ऊष्मागतिकी का तीसरा नियम कहता है – परम शून्य ताप पर एण्ट्राॅपी (अस्थिरता का माप) शून्य होती है।आत्मागतिकी कहता है कि परमात्मा को प्राप्त कर परम शांति मिलता है अर्थात अस्थिरता शून्य हो जाती है।
ऊष्मागतिकी और आत्मागतिकी में यहाँ थोड़ा सा विचलन होता है, पर विचलन होकर भी समानता है ठीक वैसे ही जैसे ऊष्मागतिकी के द्वितीय नियम में केल्विन का कथन क्लाॅसियस के कथन का विरोधाभासी प्रतीत होता है पर वस्तुतः एक ही कथन को अलग तरीके से कहा गया है। ऊष्मागतिकी कहता है कि किसी वस्तु का परम शून्य की अवस्था प्राप्त करना असंभव है क्योंकि इस अवस्था में वस्तु का आयतन शून्य हो जाता है। आत्मागतिकी यहाँ से अलग कहती है कि व्यक्ति का अहंकार ही उसका शरीर बनने का कारण है, अहंकार को शुन्य कर परमात्मा से मिलन संभव है। अर्थात आत्मा तभी आयतन (शरीर) धारण करता है जब अहंकार बचा हुआ हो। आयतन शून्य होने पर परम शांति प्राप्त की जा सकती है। दोनों विरोधाभासी होकर भी एक ही कथन को कह रहे हैं।
इन सबसे स्पष्ट है कि आत्मा विशुद्ध ऊर्जा है और एक विराट ऊर्जा का छोटा सा हिस्सा है। आइंस्टीन के सापेक्षवाद से आज सिद्ध हो चुका है कि प्रत्येक वस्तु को ऊर्जा में बदला जा सकता है। अतः संपूर्ण सृष्टि एक संघ के रुप में एक विराट ऊर्जा है और हम उस विराट ऊर्जा का एक छोटा सा कतरा।
अर्थात मूल रूप से संसार में दृष्टिगोचर सभी वस्तु, जीवित मृत सभी, केवल ऊर्जा से बना है। इसका अर्थ है कि सभी मूल रूप से समान हैं, समानता स्वतःस्फूर्त है न कि चयन की वस्तु।
अब केवल एक ही प्रश्न अनुत्तरित है कि क्या यह समग्र ऊर्जा स्वयं चेतन है? अगर स्वयं चेतन है तो कहा जा सकता है कि परमात्मा है और यदि चेतनाशून्य है तो परमात्मा नहीं है।
कौन निर्धारित करेगा यह? विज्ञान निर्धारित नहीं कर सकता। क्योंकि हमारे भीतर के मन को प्रमाणित करने का कोई तरीका विज्ञान नहीं खोज पाया तो इस विराट सृष्टि की चेतना को कैसे सिद्ध कर सकता है विज्ञान।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह सवाल अनुत्तरित ही रहेगा।