Thursday, April 25, 2024
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सबरीमाला: कहानी धर्मयुद्ध की

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Pratyasha Nithin
Pratyasha Nithin
प्रत्याशा नितिन कर्नाटक प्रांत के मैसूर नगर की निवासी हैं | वे एक लेखिका एवं चित्रकार हैं | वे धर्म सम्बन्धी कहानियां लिखना पसंद करती हैं | उनका उद्देश्य ऐसी कहानियां लिखने का है जो लोगों को अपनी जड़ों से वापस जोड़ सकें एवं उनके मन में भक्ति भाव जागृत कर सकें | उनकी हिंदी एवं अंग्रेजी में लिखी कहानियां प्रज्ञाता नामक ऑनलाइन पत्रिका में प्रकाशित हुई हैं |

“नमस्ते, आप सभी को यहाँ इस सभा का भाग बना देख मुझे हार्दिक प्रसन्नता हो रही है.” तीस साल की प्रतिभा ने जब सभा को इन वाक्यों से संबोधित करना शुरू किया तो सभा में उपस्थित सारी औरतों ने जोरदार तालियों से उसका स्वागत किया. प्रतिभा के लिए ये कोई बड़ी बात नहीं थी. तेरह साल की उम्र से उसने ऐसी ना जाने कितनी सभाओं को संबोधित किया था. प्रतिभा का नाम तो जैसे उसके लिए ही बना था. उसमें अपनी बातों से लोगों को मंत्रमुग्ध कर देने की प्रतिभा कूट कूट कर बसी थी.

प्रतिभा ने आगे बोलना शुरू किया “जब मुझे इस सभा- अस्तित्व एक औरत का को संबोधित करने का न्योता दिया गया तो सबसे पहला सवाल मेरे मन में यह आया कि एक औरत है क्या? इस पितृसत्तात्मक समाज में जहाँ एक औरत का सारा जीवन अपने पिता फिर पति और फिर बेटे की बातें सुनने में लग जाता है वहाँ एक औरत का अस्तित्व है क्या असल में? हमारे शास्त्र हमें जीवन भर एक दूसरे इंसान की गुलामी करने और उसके अनुसार चलने का निर्देश देते हैं. ढोल, गंवार, शुद्र, पशु , नारी ; सकल ताड़ना के अधिकारी॥ मतलब कि एक औरत जो कि इस समाज का आधार है वो ताड़ना की अधिकारी हो गयी. क्यों? ऐसा क्या पाप किया है औरतों ने, कि वे ताड़ना की अधिकारी हो गयीं? बचपन से एक औरत पर समाज दबाव डालना शुरू करता है. ये मत करो, ये मत बोलो, ऐसे मत बैठो, ये मत पहनो, क्यों ? क्या औरत एक गुलाम है? क्या उसे अपने निर्णय लेने का अधिकार नही?” प्रतिभा की इस बात पर एक बार फिर तालियाँ बज उठीं.

प्रतिभा ने हाथ उठाकर लोगों को शांत होने का आग्रह किया और आगे बोली “आजकल आप बहुत से लोगों को कहते सुनेंगे कि ये सब पुरानी बातें हो गयीं. आज तो समाज में औरतें आदमियों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चल रही हैं. जॉब कर रही हैं, आर्मी में जा रही हैं, विदेश जा रही हैं, यहाँ तक कि अन्तरिक्ष में भी पहुँच गयीं. फिर वो कहेंगे कि औरतें अब बस अपनी हीन भावना का शिकार हैं और इस कारण अच्छा भला कमाने के बाद भी उत्पीड़ित होने का दावा करती हैं. मैं पूछती हूँ कि क्या सच में ऐसा है? क्या सच में समाज में औरतों की परिस्थिति में सुधार आया है? हाँ, अब औरतें अपने हक़ की लड़ाई लड़ते हुए इतना अधिकार अपने लिए हासिल कर चुकी हैं कि वे काम पर जा सकें, घर से बाहर निकल सकें; पर क्या समाज में बराबरी का दर्जा उन्हें हासिल हो गया है? नहीं, ऐसा नहीं है. और आज भी इस बात का सबूत हमें कहीं ना कहीं हर रोज देखने को मिल ही जाता है.

ज़रा उस औरत से पूछिए जो जॉब कर रही है. हर दिन घर आने के बाद जब उसका पति दिनभर की थकान का बहाना बनाकर बैठ जाता है तब वो अपनी थकान भूलकर परिवार के लिए किचेन में खाना बनाती है. क्या वो थकी नहीं होती? क्या उसका आराम करने का मन नहीं करता? पर अगर उसने थकान के कारण इस डिश कम बना दी, तो उससे क्या कहा जाएगा? जब इतनी ही तकलीफ हो रही है तो जॉब छोड़ दो ना! आज भी एक औरत चाहे कितना भी कमा ले, उसका स्थान घर के अन्दर वहीँ है. एक कामवाली बाई, एक दाई, एक मनोरंजन की वस्तु बस. और इस सबसे ऊपर एक औरत एक अछूत भी हो जाती है जब उसे महावारी होती है. बचपन से हमारे माँ बाप हमें महावारी के समय एक कोने में ऐसे बिठा देते हैं जैसे कि हमें कोई कोढ़ हो गया हो. कुछ छू नहीं सकते क्योंकि हम अशुद्ध हैं. मंदिर जा नहीं सकते क्योंकि हमारे मंदिर जाने से मंदिर अशुद्ध हो जाएगा. क्यों भई? क्या एक औरत बिना महावारी के एक बच्चे को जन्म दे सकती है? और अगर नहीं तो जो प्रक्रिया हमें एक नए जीवन को जन्म देने की क्षमता देती है वो हमें अशुद्ध कैसे बना देती है? और अगर वो हमें अशुद्ध बना देती है तो हमारे शरीर से जन्म लेने वाला पुरुष शुद्ध कैसे हो गया?”

प्रतिभा के इस सवाल पर एक बार फिर जोरदार तालियाँ बजीं. इस बार प्रतिभा ने उन्हें रोका नहीं. अपने पास रखी पानी के बोतल उठाकर कुछ घूँट पानी पीकर वो आगे बोली “आप सब ने सबरीमाला के अय्यप्पा स्वामी मंदिर में जो हो रहा है सुना ही होगा. आजकल वो मंदिर बहुत सुर्ख़ियों में है. क्यों? क्योंकि उस मंदिर में उन स्त्रियों को जाने की अनुमति नहीं है जिनके अन्दर महावारी की क्षमता है. यानी कि जहाँ एक स्त्री ने उस उम्र में पड़ाव डाला वो अछूत हो गयी. और इतना ही नहीं वहाँ केरल के लोगों ने अपने घर की लड़कियों के दिमाग में इतना जहर घोला हुआ है कि वे भी इस बेहूदी प्रथा का समर्थन कर रही हैं. पर ये जहर हमें अपने मन में नहीं घुलने देना है. इस जहर से हमें हमारी आने वाली पीढ़ियों को बचाना है. और इसलिए ही मैंने यहाँ आने से पहले एक निर्णय लिया था. मैंने निर्णय किया है कि मैं सबरीमाला जाऊँगी. वहाँ की इस गलत प्रथा को ख़त्म करने और औरतों के खिलाफ हो रहे इस अन्याय का विरोध करने. और इसमें मुझे आप सबके प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समर्थन की अपेक्षा है. मेरा अनुरोध है कि आप सभी अपने परिवार में इस तरह की प्रथाओं को जड़ से उखाड़ने का आज संकल्प लें. क्योंकि ये सारी प्रथाएं आपके अस्तित्व पर एक बड़ा सवाल खड़ा करती हैं. ये आपको आपके सही रूप को समझने नहीं देंगी. ये प्रथाएं आपको सिर्फ और सिर्फ दबाने के लिए बनाई गयीं हैं और अगर आप अपने अस्तित्व को बचाना चाहती हैं तो उखाड़ फेंकियें इन्हें अपने मन से और इस समाज से.”

इसके साथ ही प्रतिभा का भाषण समाप्त हुआ और पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज गया.

एक न्यूज़ ऑर्गनाइजेशन में काम करने वाली प्रतिभा को तब बहुत ख़ुशी हुई जब उस ऑर्गनाइजेशन ने उसके निर्णय में उसका साथ देने का वादा किया. कुछ ही दिनों में प्रतिभा केरल की ओर रवाना हुई. सीधे सबरीमाला जाने के वजाय वह पहले कोल्लम गयी. कोल्लम के रेलवे स्टेशन पर उतरते ही वेंकटेश की मीठी सी मुस्कान ने उसका स्वागत किया| प्रतिभा और वेंकटेश की मुलाक़ात छः साल पहले कॉलेज में हुई थी. वहाँ पहले वो दोस्त बने और फिर प्रेमी. प्रतिभा भोपाल की थी और वेंकटेश त्रिशूर का, जो इस समय कोल्लम में काम कर रहा था. वेंकटेश को देखते ही प्रतिभा उसके गले से लग गयी. वेंकटेश ने भी उसे ख़ुशी से बाहों में भर लिया.

कुछ पल एक दूसरे को जी भर कर गले लगाने के बाद ही दोनों को याद आया कि वे स्टेशन में खड़े थे. आसपास के लोग आते जाते उन्हें अजीब सी निगाहों से घूर ही लेते थे. ये देखकर दोनों हंस दिए और स्टेशन से बाहर निकल आये. दोनों ने साथ खाना खाया और फिर वेंकटेश उसे उसके होटल रूम छोड़ने आया. होटल रूम में कुछ देर बैठकर इधर उधर की बातें करने के बाद प्रतिभा ने वेंकटेश को अपने आने का मूल उद्देश्य बताया.

“क्या? पर प्रतिभा कम से कम इतना बड़ा निर्णय लेने से पहले तुम मुझे बताती तो सही!” वेंकटेश ने जब प्रतिभा के सबरीमाला जाने के निर्णय के बारे में सुना तो वह स्तब्ध रह गया.

“अब बता रही हूँ ना? ऐसी भी क्या बड़ी बात है?” वेंकटेश ने अबतक प्रतिभा के हर निर्णय को सराहा ही था. ये पहली बार था जब उसकी आवाज में वह ख़ुशी नहीं थी और प्रतिभा को यह बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था.

“बात है इसलिए ही तो कह रहा हूँ. देखो प्रतिभा, सबरीमाला में ऐसी कोई भी प्रथा नहीं है जो औरतों के विरुद्ध हो और जिसके खिलाफ आन्दोलन की जरूरत हो. तुम अगर एक बार मुझसे इस बारे में बात करती तो मैं तुम्हें समझा तो सकता था. ये अचानक से तुमने ऐसा निर्णय कैसे ले लिया?”

“अचानक जैसा कुछ भी नहीं वेंकट. मैं बहुत दिनों से न्यूज़ फॉलो कर रही थी और मुझे लगा कि मुझे कुछ करना चाहिए. पर मेरे समझ में यह नहीं आ रहा कि तुम इस तरह की प्रथा का समर्थन कैसे कर सकते हो? ये केरल के हिन्दुओं की समस्या क्या है? देश के सबसे साक्षर राज्य से होते हुए भी इस तरह की मिसोजेनिस्ट प्रथा का समर्थन कर रहे हैं?” प्रतिभा की चिडचिडाहट अब उसकी आवाज में झलक रही थी. उसका चिडचिडाना जायज भी था. आखिरकार उसने अपना निर्णय वेंकट को सुनाते हुए उम्मीद की थी कि उसे प्रतिभा पर गर्व होगा; पर यहाँ तो सबकुछ उल्टा ही हो रहा था.

“साक्षरता का मतलब आँखें बंदकर हर प्रथा को पुराना और बेबुनियाद ठहरा देना तो नहीं होता ना प्रतिभा?”

“तो तुम्हारा कहना है कि औरतों को मंदिरों में ना जाने देना सही प्रथा है?”

“मंदिरों की बात कौन कर रहा है? यहाँ एक मंदिर की बात हो रही है. आजतक कितने मंदिरों में तुम्हें अन्दर जाने से मना किया गया?”

“मेरा सवाल ये है कि कोई भी औरतों को किसी भी मंदिर जाने से रोकने वाला होता कौन है? तुम समझ नहीं रहे वेंकट, आज इस मंदिर में औरतों का जाना मना है, क्या पता कल को देश के दूसरे मंदिरों में भी यहीं प्रथा चालू हो गयी तो? इसलिए इस तरह की बेबुनियाद प्रथाओं को समय रहते जड़ से उखाड़ देना चाहिए.”

“जरूर करना चाहिए, अगर सच में यह प्रथा बेबुनियाद हो तो. तुम मुझे बताओ कि किस आधार पर तुम इसे बेबुनियाद कह रही हो? क्या सिर्फ इसलिए कि एक उम्र सीमा की औरतों को मंदिर में जाना मना है? या फिर तुम्हारे पास और भी कोई कारण है?”

“क्या इतना कारण काफी नहीं है? क्या ये अन्याय नहीं है?”

“वही तो मैं तुम्हें समझा रहा हूँ प्रतिभा कि इसमें कुछ भी अन्याय नहीं है. तुम पता करने की कोशिश तो करती कि ऐसी प्रथा क्यों है? चलो मैं तुम्हें बताता हूँ.” ऐसा कहते हुए वेंकटेश ने प्रतिभा का हाथ पकड़ने की कोशिश की पर प्रतिभा का मन अब बहुत खराब हो चूका था.

थोड़ा पीछे हटते हुए वह बोली “मुझे सब पता है. तुम जानते हो कि मैं कोई भी निर्णय लेने से पहले अपनी रिसर्च करती हूँ. अयप्पा स्वामी नैस्तिक ब्रह्मचारी हैं यहीं कारण है ना? मेरा सवाल यह है, कि अय्यपा स्वामी जो कि भगवान् हैं, उनका ब्रह्मचर्य एक औरत के उनके मंदिर में प्रवेश करने से कैसे टूटता है?” उसकी आवाज में बहुत सख्ती थी.

“प्रतिभा ब्रह्मचर्य के कुछ नियम होते हैं और इन नियमों की कुछ वजहें होती हैं. एक मंदिर कोई चर्च या मस्जिद नहीं जहां लोग सभा करने या नमाज अदा करने के लिए इकठ्ठा होते हैं. एक मंदिर एक देव या देवी का घर होता है और हर घर के कुछ नियम होते हैं. तुम अय्यप्पा स्वामी को जानती तक नहीं. वो कौन हैं, क्या हैं, नैस्तिक ब्रह्मचर्य क्या है, उसके नियम क्या हैं, तुम्हें नहीं पता. तुम्हारे मन में अय्यप्पा स्वामी के लिए कोई भक्ति या प्रेम नहीं तो फिर क्यों तुम्हें उनके घर के नियम तोड़ कर उनके घर में घुसना है? क्या अगर कल को मैं यह संकल्प लूँ कि मैं किसी औरत से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखना चाहता, मैं उनसे दूरी बनाकर रखना चाहता हूँ, और ये सब समझते हुए भी सामने वाली आंटी जो मुझे जानती तक नहीं सिर्फ यह सोचकर कि यह नियम एक औरत का अपमान है जबरदस्ती मेरे घर में घुस आयें तो क्या यह सही होगा? क्या उनका मेरे घर में घुस आना उनके और मेरे दोनों के लिए एक अजीब परिस्थिति नहीं हो जायेगी? और ऐसा करके उन्हें क्या मिलेगा? वो सिर्फ और सिर्फ मेरे घर का नियम तोड़ पलभर के लिए खुश हो जायेंगी बस!”

“तुमने यह कैसे मान लिया कि मेरे मन में अय्यप्पा स्वामी के लिए भक्ति नहीं?”

“मानने की बात ही नहीं है. तुम ही सोचो जो अय्यप्पा स्वामी के भक्त होंगे वो उनके मंदिर में जबरदस्ती क्यों घुसेंगे? उनके मन की श्रद्धा उन्हें ऐसा करने ही नहीं देगी. वो उनके नैस्तिक ब्रह्मचर्य का सम्मान करेंगे. वो उनके घर की प्रथाओं का सम्मान करेंगे. वो वहाँ जायेंगे जहाँ अय्यप्पा स्वामी ब्रह्मचारी के रूप में नहीं हैं. तुम्हें अगर अय्यप्पा स्वामी के दर्शन की ही इच्छा हैं तो ठीक है मैं तुम्हें केरल के ही उन मंदिरों में ले चलता हूँ जहाँ तुम आराम से बिना किसी और की भावनाओं को ठेंस पहुंचाए उनके दर्शन कर सकती हो.”

कुछ पल प्रतिभा वेंकटेश की बात सुनकर चुप बैठी रही फिर अचानक से बोल पड़ी “तो तुम्हारा कहना है कि अगर एक औरत एक ब्रह्मचारी के घर में घुस जाए तो उस ब्रह्मचारी का ब्रह्मचर्य टूट जाता है? बड़ा आसान है किसी का ब्रह्मचर्य तोड़ना!”

प्रतिभा की बात से वेंकटेश को थोड़ी चिडचिडाहट हुई पर फिर भी वो खुद को शांत करते हुए बोला “फिर वही बात! मैंने उनके घर के नियमों की बात की. मैंने उनके ब्रह्मचर्य के नियमों की बात की. क्या तुम किसी के संकल्प का सम्मान नहीं कर सकती? अगर एक नैस्तिक ब्रह्मचारी के लिए यह नियम है कि उसे उन औरतों से दूर रहना चाहिए जो अपनी रिप्रोडक्टिव एज में हैं तो उसे दूर रहने दो ना. क्यों तुम्हें जाकर उसका संकल्प को तोड़ने की कोशिश करनी है? क्या मिलेगा तुम्हें ऐसा करके?”

“ख़ुशी मिलेगी.” प्रतिभा गुस्से में बोली “ऐसे बेफालतू के नियम जो सिर्फ औरतों को नीचा दिखाने के लिए बने हैं उन्हें तोड़कर मेरे मन को शान्ति मिलेगी. सच में वेंकट, मैंने सोचा भी नहीं था कि तुम मेरा साथ देने के वजाय ऐसी रूढ़िवादिता का समर्थन करोगे. मैं खुश होकर आई थी कि तुम्हें मुझपर गर्व होगा और तुम मेरी मदत करोगे पर यहाँ तो तुम भी वही बेवकूफी भरे तर्क कर रहे हो जिनका कोई मतलब नहीं बनता.”

“क्यों मतलब नहीं बनता?” वेंकटेश प्रतिभा के बात करने के तरीके से भड़क गया था. “मैंने औरतों को नीचा दिखाने वाली क्या बात कही? ऐसा कौन सा तर्क दे दिया मैंने जो तुम्हें लगता है कि औरतों के खिलाफ है? ये हर चीज को फेमिनिस्म का चश्मा लगाकर देखना जरूरी है क्या? तुम खुद पर्सनल स्पेस और प्राइवेसी की बातें करती हो. तुम्हें पसंद नहीं कोई तुम्हारी मर्जी या पसंद के खिलाफ तुमसे सम्बंधित कोई निर्णय ले, तो तुम यहाँ क्या कर रही हो? तुम भी तो किसी के मर्जी की खिलाफ उसके घर में घुसने का निर्णय कर रही हो. किसी के नियमों का उल्लंघन करने की ही कोशिश कर रही हो. तो ये सही कैसे है?”

“यू नो व्हाट? इट्स यूजलेस! लेट्स फॉरगेट इट. मुझे नहीं लगता तुम मेरी बात समझना चाहते हो. और जायज भी है तुम खुद भी एक आदमी ही तो हो. तुम्हें इन सब नियमों में कोई बुराई नहीं नजर आएगी क्योंकि ये तुम्हें सुपीरियर होने का अहसास दिलाती है.” प्रतिभा चिढ़ते हुए बोली.

“क्या बेवकूफी भरी बात कर रही हो ? इसमें सुपीरिओरिटी कैसे बीच में आ गयी?” वेंकटेश चिल्लाया पर अगले ही पल प्रतिभा को चौंकता देख उसे अहसास हुआ कि वो चिल्ला रहा था. एक कुर्सी लेकर प्रतिभा के सामने बैठकर उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए वह बोला “आई ऍम सॉरी. मैंने थोडा ज्यादा ही जोर से बोल दिया.” प्रतिभा का मूड अब भी खराब ही था. जब उसने कोई जवाब नहीं दिया तो दो पल रूककर वेंकटेश आगे बोला “चलो ठीक है. इस वक़्त हम दोनों का मन खराब है तो इस मुद्दे को यहीं छोड़ते हैं. मैं बस इतनी उम्मीद करता हूँ कि तुम मेरी कही बातों पर एक बार विचार करोगी और जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाओगी. ठीक है ना?”

प्रतिभा फिर भी चुप ही थी.

“इतना गुस्सा? कम से कम हाँ तो बोल दो.” वेंकटेश हँसते हुए बोला. प्रतिभा ने हाँ में सर हिला दिया.

“दो दिन बाद मैं अपने दो साथियों के साथ सबरीमाला जा रही हूँ. मैं दिल से चाहती थी कि तुम भी मेरे साथ चलो. तुम केरल से हो, सबरीमाला आते जाते रहते हो, तुम्हारे हमारे साथ खड़े होने से हमारे इस उद्देश्य को एक अलग ही शक्ति मिलती. एक बार फिर सोच लो वेंकट.” वेंकटश के ऑफिस के सामने बने रेस्टोरेंट में उससे मिलने आई प्रतिभा उसका व्यवहार देखकर बहुत मायूस थी.

“नहीं प्रतिभा, जो तुम कर रही हो वो एकदम गलत है. इसमें मैं तुम्हारा साथ नहीं दे सकता. प्लीज मेरी बात मानो ये जिद छोड़ दो.” वेंकटेश के चेहरे पर दुःख था.

“जिद कहाँ हैं वेंकट? मैं तो कोशिश कर रही हूँ, समाज से एक कुरीति को मिटाने की.”

“यहीं तुम गलत हो प्रतिभा. अगर किसी प्रथा को तुम समझ नहीं पा रही तो इसका ये मतलब तो नहीं कि वो कुरीति है. मैंने उस दिन भी तुम्हें समझाने की कोशिश की थी पर तुम नहीं समझी. प्लीज मैं तुमसे रिक्वेस्ट कर रहा हूँ मेरे खातिर ही सही अपना ये निर्णय बदल दो.”

“व्हाट? व्हाई आर यू गेटिंग सो पर्सनल? आजतक तो तुमने कभी ऐसा नहीं किया. बात क्या है? सच बोलो वेंकट, कहीं ऐसा तो नहीं कि अब तुम भी उन आदमियों जैसा सोचने लगे हो जिन्हें एक औरत घर की चारदीवारी में ही अच्छी लगती है? कहीं तुम मेरे सोशल वर्क्स से ऊब तो नहीं गए ना? क्या तुम भी ऐसी ही पत्नी की अपेक्षा रखते हो जो हाँ में हाँ मिलाती रहे?”

“तुम पागल हो क्या प्रतिभा? इतने सालों में मैंने हमेशा तुम्हारा साथ दिया क्योंकि मैं तुम्हारी बातों से, तुम्हारी सोच से सहमत था. पर मैं तुम्हारी इस सोच से सहमत नहीं क्योंकि मैं बचपन से अय्यप्पा स्वामी के मंदिर जाता रहा हूँ. मैंने देखी है लोगों की श्रद्धा. मैंने देखा है उन औरत को जो चालीस साल इन्तजार करने में गर्व महसूस करती हैं. मैंने तुम्हें सबरीमाला की इस प्रथा का कारण भी समझाया, पर तुम समझने को तैयार नहीं. और अब तुम कहती हो कि जस्ट बिकॉज़ मैं तुम्हारे एक निर्णय में तुम्हारा साथ नहीं दे रहा तो मैं उन आदमियों जैसा हो गया जो चाहते हैं कि उनकी पत्नी उनकी हाँ में हाँ मिलाये. अगर तुम ध्यान दो प्रतिभा तो तुम्हें समझ आएगा कि कहीं ना कहीं तुम ऐसे पति की अपेक्षा रख रही हो तो तुम्हारी हाँ में हाँ मिलाये.”

प्रतिभा ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था पर वेंकटेश ने उसे रोक दिया और आगे बोला “और रही बात पर्सनल होने की, तो ये इशू पर्सनल ही है. जैसा कि मैंने कहा मैं बचपन से सबरीमाला जाता आया हूँ. मेरे परिवार का हर एक सदस्य अय्यप्पा स्वामी का डिवोटी है. मेरी माँ कोई अनपढ़ गंवार नहीं हैं प्रतिभा, वो एक लेक्चरर हैं. चाहतीं तो वो भी इस प्रथा के विरुद्ध आवाज उठा सकती थीं, पर उन्हें अय्यप्पा स्वामी पर अपार श्रद्धा है और वो इस प्रथा को समझती हैं. सिर्फ वो ही नहीं मेरी मौसी, मेरी बहनें, मेरे पड़ोसी सब इस प्रथा को निभा रहे हैं और उनमें से एक भी नहीं जो आँखें बंद करके इस प्रथा को सपोर्ट कर रहा हो. सबने इसके कारण को समझा है और इस तपस को स्वीकार किया है.”

“तपस? तुम इस प्रथा को तपस बोल रहे हो?”

“हाँ, प्रतिभा क्योंकि ये तपस है.”

“और अगर मैं ये तपस करने से इंकार करूँ तो?”

“तो मत करो. कोई तुम्हारे साथ जबरदस्ती नहीं कर रहा. पर मंदिर के नियम भी मत तोड़ो. उन औरतों की श्रद्धा का अपमान मत करो जिन्होंने सहर्ष इस तपस को स्वीकार किया है. तुम्हारी एक नादानी ना जाने कितने भक्तों का दिल तोड़ देगी और उनमें से एक मैं भी हूँ प्रतिभा. मुझे अय्यप्पा स्वामी में अपार श्रद्धा है इसलिए तुमसे रिक्वेस्ट कर रहा हूँ कि मेरे लिए मत जाओ.”

“सॉरी वेंकट, मैं तुम्हारी ये बात नहीं मान सकती. तुम्हारे कोई भी तर्क मुझे लॉजिकल नहीं लग रहे. मंदिर एक पब्लिक प्लेस है. वहाँ जाने की स्वतंत्रता सबको होनी चाहिए.”

“यहीं तो समस्या है प्रतिभा. तुम उसे एक पब्लिक प्लेस की तरह देख रही हो ना कि तुम्हारे आराध्य के घर की तरह. एक बार अगर तुम मेरी नजर से देखती या उन औरतों की नजर से देखती जो अय्यप्पा स्वामी में श्रद्धा रखती हैं तो तुम सच को समझ पाती. मैं जिन पर श्रद्धा रखता हूँ, उनके घर के नियम को तोड़ कर कोई जबरदस्ती अपनी सोच उन पर थोपे तो ये मुझे दुःख ही देगा. ये मेरे लिए मेरे आराध्य का अपमान ही होगा. तुम अय्यप्पा स्वामी को बस एक आइडल की तरह देख रही हो, हम उनमें जीते जागते भगवान् को देखते हैं. तुम मंदिर को पब्लिक प्लेस बोलती हो, हम उसे अपने स्वामी के घर की तरह देखते हैं. तुम वहाँ के नियमों को अपनी स्वतंत्रता का हनन समझती हो, हम जानते हैं कि ये नियम सिर्फ अय्यप्पा स्वामी की प्रतिज्ञा के कारण हैं. तुम्हें मैंने दूसरे मंदिरों के बारे में बताया जहां तुम आराम से अय्यप्पा स्वामी के दर्शन कर सकती हो, पर दर्शन करना तुम्हारा उद्देश्य है ही नहीं, तुम बस एक पल की जीत के अहसास के लिए ये करना चाहती हो.”

“क्या? क्या कहा तुमने? एक पल की जीत के अहसास के लिए मैं ये करना चाहती हूँ? इतना ही समझ पाए इन छह सालों में तुम मुझे वेंकट!” प्रतिभा बहुत गुस्से में थी. उसकी आवाज तेज होने के कारण आसपास के लोगों ने एक बार उनकी ओर मुड़कर देखा, पर फिर वापस अपने अपने काम में लग गए. प्रतिभा ने अपने गुस्से पर काबू किया और शान्ति से बोली “ठीक है. अब इस डिस्कशन का कोई मतलब नहीं. जैसा कि मैंने कहा, मैं दो दिन बाद सबरीमाला जा रही हूँ. अब मैं तभी तुमसे मिलूँगी जब मैं अपने उद्देश्य में सफल हो जाऊँगी. उम्मीद करती हूँ कि तब तक तुम्हारी सोच भी बदल चुकी होगी. वरना तो हमारे साथ का मतलब भी क्या बनता है?”

प्रतिभा के इस व्यवहार और उसकी बातों से वेंकटेश के मन को जो चोट लगी वो उसकी आँखों में साफ़ दिख रही थी. उसकी कोशिश निरर्थक सिद्ध हो गयी थी और उसे कोई तरीका नहीं सूझ रहा था प्रतिभा को समझाने का. एक पल वो प्रतिभा के चेहरे को यूं ही चुपचाप देखता रहा, फिर “पछताओगी तुम प्रतिभा.” कहते हुए वो चुपचाप उठकर चला गया.

आज का दिन प्रतिभा के लिए जीत का दिन था. आज प्रतिभा ने जो चाहा था हासिल कर लिया था. कुछ हफ़्तों की लगातार कई कोशिशों के बाद आज आख़िरकार वो सबरीमाला मंदिर में पुलिस की मदत से घुस ही गयी. पहले तो वह सिर्फ मंदिर में घुसकर उस पुरानी बेबुनियाद प्रथा को तोड़ना भर चाहती थी पर पता नहीं कब यह हार जीत का मुद्दा बन गया. पिछले कुछ समय में उसे बहुत कुछ सहना पड़ा. उसकी पहली कोशिश के बाद उसे केरल के हिन्दुओं के गुस्से का शिकार होना पड़ा. होटल्स ने उसे कमरा देने से मना कर दिया, ऑटोवालों ने उसे कहीं भी ले जाने से मना कर दिया, सब उसे इस तरह से देखते जैसे कि वो कोई अपराधी हो, पहली बार उसे केरल छोड़कर मजबूरी में जाना पड़ा. पर फिर वहाँ के कुछ ग्रुप्स उसकी मदत के लिए आगे आये और फिर कुछ कोशिशों के बाद उसे आज सफलता मिल ही गयी.

सुबह के तीन बजे थे जब प्रतिभा सबरीमाला मंदिर में पुलिस की मदत से घुसी. मंदिर परिसर में घुसते ही ना जाने क्यों अचानक ही उसे वेंकटेश की याद आई. पछताओगी तुम प्रतिभा . उसके ये शब्द प्रतिभा के कानों में गूँज गए. पिछले कुछ हफ़्तों में जब भी उसने वेंकटेश से बात की, उनकी बात झगड़ों पर ही ख़त्म हुई. जब प्रतिभा ने पहली बार मंदिर में घुसने की कोशिश की और वेंकटेश को फोन पर बताया कि कैसे लोगों ने उसे वहाँ से भगा दिया और कैसे लोग उसे अपने यहाँ जगह भी नहीं दे रहे थे तो वेंकटेश ने कुछ भी रियेक्ट नहीं किया. वो आखिरी बार था जब प्रतिभा और वेंकटेश की बात हुई थी. उसके बाद वेंकटेश ने प्रतिभा के फोन उठाने ही बंद कर दिए. प्रतिभा को अब भी विश्वास नहीं हो रहा था कि एक पुरानी सी प्रथा के लिए वेंकटेश ने उसका छः साल का साथ छोड़ दिया. क्या बस इतना ही गहरा रिश्ता था उनका कि इतनी सी बात पर टूट गया?

मंदिर में घुसने के बाद प्रतिभा ज्यादा कुछ सोच नहीं पायी. बस एक बार उसे वेंकटेश का ध्यान आया. वो कुछ सोच समझ पाती उससे पहले ही अयप्पा स्वामी के भक्तों को उसके मंदिर में घुसने की बात पता चल गयी. उसे तुरंत पुलिस वहाँ से निकालने में जुट गयी. प्रतिभा के पास समय नहीं था. पुलिस की मदत से वो वहाँ से भागी और फिर उसे जल्द ही एक गाडी में बैठा दिया गया. सुबह के चार बजे चुके थे. गाड़ी के बाहर लोग पुलिस वालों से झड़प कर रहे थे. पर प्रतिभा को इस सब की परवाह नहीं थी. ये तमाशा तो वह हर दूसरे दिन देख रही थी. उसका ध्यान तो आज रह रहकर वेंकटेश पर जा रहा था. क्या वेंकटेश उसे कॉल करेगा? क्या उसे यहाँ से सीधे वेंकटेश से मिलने जाना चाहिए? जब वो वेंकटेश से मिलेगी तो वह क्या बोलेगा? यहीं सब सवाल उसके मन में घूम रहे थे.

दिन बीता. बहुत से लोगों ने उसे उसकी सफलता की बधाई देने के लिए कॉल किया. पर वेंकटेश का ना तो कोई कॉल आया ना ही मेसेज. प्रतिभा को उसका यह व्यवहार अब बहुत खल रहा था. वो उसे फोन करके बहुत कुछ सुनाना चाहती थी पर कैसे भी खुद को संभालते हुए उसने अपने आपको ऐसा करने से रोक लिया. वो क्यों कॉल करे? गलती वेंकटेश की थी. क्या उसे प्रतिभा की बिल्कुल भी चिंता नहीं थी? क्या एक बार फोन करके वह यह नहीं पूछ सकता था कि तुम ठीक तो हो? इसी सब उधेड़बुन में प्रतिभा ने कोल्लम जाने का निर्णय किया. वो सामने सामने वेंकटेश से सवाल करना चाहती थी. एक टैक्सी पकड़कर वो कुछ ही घंटों में कोल्लम पहुँच गयी. उसने सोच लिया था कि वेंकटेश से मिलकर वो उसे बहुत कुछ सुनाएगी.

जब प्रतिभा कोल्लम में उसके ऑफिस पहुंची तो उसे पता चला कि वेंकटेश छुट्टी के लिए घर गया हुआ था. उसकी सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया. प्रतिभा की मुलाक़ात वेंकटेश के घर वालों से कभी नहीं हुई थी इसलिए उसके पीछे त्रिशूर जाना उसे सही नहीं लगा. एक रात कोल्लम में बिताकर अगले दिन उसने वापस भोपाल जाने की सोची. वेंकटेश के ऑफिस से बाहर निकलते समय प्रतिभा ने वेंकटेश को व्हाट्सएप्प पर कुछ मेसेज भेजे-

“मैं तुमसे मिलने तुम्हारे ऑफिस आई थी, पर तुम तो शहर में ही नहीं. जब तुम छुट्टी पर हो तो ऑफिस में बिजी थे का बहाना नहीं बना सकते. इतना समय हो गया वेंकट क्या तुम्हें मेरी याद नहीं आई? क्या एक बार भी तुम्हारा मुझे कॉल करने का मन नहीं किया?”

“इससे पहले मेरी हर सफलता पर तुमने मुझे सबसे पहले कॉल करके विश किया. मुझे उम्मीद थी कि तुम सब भुलाकर मुझे कॉल जरूर करोगे पर तुमने इसकी जरूरत नहीं समझी. क्या छः साल का हमारा साथ इतना कमजोर था? मुझे तुमसे यह उम्मीद नहीं थी.”

कुछ समय तक जब वेंकटेश का कोई जवाब नहीं आया तो प्रतिभा ने गुस्से में अपना फोन स्विच ऑफ कर दिया. उसने निर्णय ले लिया कि अब अगर वेंकटेश कुछ कहना भी चाहेगा तो वो नहीं सुनेगी. भाड़ में जाए! शायद उसे लगता है कि मैं उसके बिना जी नहीं पाउंगी  ये सारे के सारे मर्द होते ही ऐसे हैं. अगर उसे मेरी जरूरत नहीं तो मुझे भी उसकी कोई जरूरत नहीं.

प्रतिभा इतना थकी हुई थी होटल रूम जाकर चुपचाप सो गयी. अगले दिन की सुबह उसने अपने बैग्स उठाये और भोपाल की फ्लाइट पकड़ने के लिए निकल पड़ी. एअरपोर्ट पहुंचकर उसने एक न्यूज़ पेपर खरीदा. वो सबरीमाला की लेटेस्ट न्यूज़ जानना चाहती थी. वह देखना चाहती थी कि न्यूज़ पेपर वालों ने उसके बारे में क्या लिखा था.

न्यूज़ पेपर्स प्रतिभा की तारीफों से भरे पड़े थे. उसे देख प्रतिभा को थोड़ी ख़ुशी हुई. कम से कम कुछ लोग तो थे इस देश में जिन्हें सही गलत की समझ थी| न्यूज़ पेपर पलटते हुए उसकी नजर एक कोने पर छपी वेंकटेश की फोटो पर पड़ी. प्रतिभा का अब सारा ध्यान उस एक छोटे से न्यूज़-सेक्शन पर था. खबर में लिखा था- अय्यप्पा डिवोटी बर्नट सेल्फ टू डेथ. नहीं, वेंकटेश इतना बेवकूफ नहीं, यह पहला विचार उसके मन में आया. उसने तुरंत वेंकटेश को कॉल करने के लिए अपना फोन स्विच ऑन किया, और फोन के स्विच ऑन होते ही उसने देखा कि व्हाट्सएप्प में वेंकटेश ने उसे मेसेज किया था.

“माफ़ करना प्रतिभा, मैं अय्यप्पा स्वामी से अपने तीस सालों का रिश्ता नहीं निभा पाया तो तुमसे छः साल का रिश्ता कैसे निभा पाऊँगा? मैं थोड़ा स्वार्थी हूँ, तुम्हारी ये सफलता मेरी और मेरे जैसे बहुत से लोगों की बहुत बड़ी असफलता है, इसलिए तुम्हें बधाई नहीं दे सकता.”

प्रतिभा के चेहरे का रंग उड़ गया. वेंकटेश एक दिन पहले की दोपहर तक जिन्दा था. अगर प्रतिभा ने अपना फोन स्विच ऑफ नहीं किया होता तो शायद उसका मेसेज देखते ही वो उसको फोन कर सकती थी. शायद वो ये सब होने से रोक सकती थी. क्या ऐसा हो सकता था कि वेंकटेश की आत्महत्या की खबर ही झूठी हो. प्रतिभा ने ऑनलाइन वेंकटेश के नाम से न्यूज़ सर्च की और उसे कुछ और जगहों से उसकी आत्महत्या की खबर की पुष्टि हो गयी. प्रतिभा के हाथ से उसका फोन छूट गया. पास से जा रही एक औरत ने प्रतिभा का फोन उठाकर उसे पकड़ाते हुए उसे पहचान लिया. उस औरत के चेहरे के भाव प्रतिभा को पहचानते ही बदल गए.

“आरेंट यू द वन हू एंटर्ड सबरीमाला फोर्सफुल्ली? व्हाट डिड यू गेन?”

प्रतिभा जो पहले से ही सदमें में थी, यह सवाल सुनकर भावुक हो उठी. उसकी ये हालत देख सामने वाली औरत ने उसे अकेला छोड़ दिया. उस औरत के एक सवाल ने प्रतिभा के सामने सवालों की झड़ी लगा दी. क्या पाया उसने? क्या सच में वह औरतों के हक की लड़ाई लड़ रही थी या फिर वेंकटेश की बात सच्ची थी? क्या सच में वह एक पल की जीत के अहसास के लिए ये करना चाहती थी? अगर वो सच में औरतों के हक की लड़ाई लड़ रही थी तो क्यों इतनी औरतें उसके खिलाफ हो गयी थीं? क्यों सबकी नज़रों में उसे अपने लिए घृणा का भाव दिख रहा था? प्रतिभा के कानों में एक बार फिर से वेंकटेश की आवाज गूँज गयी “पछताओगी तुम प्रतिभा.”

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Pratyasha Nithin
Pratyasha Nithin
प्रत्याशा नितिन कर्नाटक प्रांत के मैसूर नगर की निवासी हैं | वे एक लेखिका एवं चित्रकार हैं | वे धर्म सम्बन्धी कहानियां लिखना पसंद करती हैं | उनका उद्देश्य ऐसी कहानियां लिखने का है जो लोगों को अपनी जड़ों से वापस जोड़ सकें एवं उनके मन में भक्ति भाव जागृत कर सकें | उनकी हिंदी एवं अंग्रेजी में लिखी कहानियां प्रज्ञाता नामक ऑनलाइन पत्रिका में प्रकाशित हुई हैं |
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