Wednesday, April 24, 2024
HomeHindiदलितों के मुद्दे पे मोदी वही गलती कर रहे हैं जो 'सेक्युलरिज्म' के मुद्दे...

दलितों के मुद्दे पे मोदी वही गलती कर रहे हैं जो ‘सेक्युलरिज्म’ के मुद्दे पे अटल-आडवाणी ने की थी

Also Read

Saurabh Bhaarat
Saurabh Bhaarat
सौरभ भारत

राजनीति और समाज के बदलते समय के साथ दलित नेतृत्व का विकेंद्रीकरण हो रहा है। यूपी में मायावती के पराभव के बाद इसमें और तेजी आई। मेरा स्पष्ट विचार है कि ऊना, भीमा-कोरेगांव और अब एससी/एसटी एक्ट के बहाने ‘भारत बन्द’ की अराजकता और कुछ नहीं बल्कि दलितवाद की आड़ में अखिल भारतीय स्तर पर दलित नेतृत्व का ‘बौद्ध केंद्रीकरण’ कर उसे फिर से हथियाने की छटपटाहट है। यह दलितवाद नहीं वस्तुतः ‘नवबौद्ध जाटववाद’ है।

हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की बढ़ती राजनीतिक चेतना और यूपी में तथाकथित दलित नेतृत्व को कई बार आजमाकर देख लेने के बाद अब लगता नहीं कि हिन्दू अनुसूचित जातियाँ किसी अराजक झांसे में आकर अपना नेतृत्व वेटिकन के इशारे पर नाचने वाले नवबौद्धों को सौंपने वाली हैं।

वर्षों से अम्बेडकर और दलित के नाम पर मायावती का केवल टिकट व्यापार और फिर मोदी के जनधन, उज्ज्वला, 12 रुपए का बीमा, डीबीटी के जरिए मनरेगा और कई सब्सिडियों का पैसा सीधे गरीबों के बैंक खाते में जाना जैसी योजनाएं वो बड़े कारण हैं जिनसे उत्तर भारत में पासी, खट्टीक, वाल्मीकि, धोबी, बेलदार, कोली, मुसहर इत्यादि अनुसूचित जातियाँ मजबूती से भाजपा के साथ जुड़ी हैं।

सिर्फ ‘अम्बेडकरवादी नवबौद्ध जाटव’ राजनीति के जरिए मायावती इन जातियों को हथिया नहीं सकती क्योंकि एक तो ये जातियाँ बौद्ध नहीं, हिन्दू हैं। दूसरे, दलित चेतना के आधार अकेले अम्बेडकर नहीं हैं। कबीरपंथ, संत रविदास, घासीदास, महिमा स्वामी, महाराजा सुहेलदेव (जिन्हें राजभर और पासी दोनों मानते हैं), महाराजा बिजली पासी, पंजाब-हरियाणा में तमाम डेरे और उनसे जुड़े संत भी दलितों की कई जातियों और बड़ी आबादी की ऐतिहासिक, सामाजिक और आध्यात्मिक चेतना के निर्माता रहे हैं।

जाने माने दलित चिंतक प्रोफेसर बद्रीनारायण ने भी अपने एक लेख में बताया था कि उन्होंने इलाहाबाद के गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान की एक बड़ी शोध टीम के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, उड़ीसा जैसे राज्यों में दलित लोकप्रिय धार्मिक एवं सांस्कृतिक पंथों का अध्ययन किया था। इनमें दलितों के मध्य कबीर पंथ, रविदासपंथ, सतनामी पंथ, महिमा धर्म के अध्ययन में यह देखकर आश्चर्य हुआ कि किस प्रकार इन लोकप्रिय पंथों के प्रभाव में प्राय: दलितों की दैनंदिन संस्कृति, उनका व्यवहार, उनकी बुद्धिमता और उनका लोक विवेक विकसित हुआ है।

गांवों में दलित समूह के लोगों से जब वे साक्षात्कार कर रहे थे और इस क्रम में उनके गीत और उनकी कथाएं रिकार्ड कर रहे थे तो आश्चर्यजनक रूप से उनकी वाणी में कबीर, रैदास, गुरु घासीदास, महिमा स्वामी की वाणियां सुनाई पड़ रही थीं। यूपी में उनकी चेतना में स्वामी अछूतानंद के आदि हिंदू पंथ की चेतना का असर भी दिखाई पड़ता है। उनके जन्म से मृत्यु तक के संस्कार, उनके आध्यात्मिक चिंतन इन परिवर्तनकारी संतों एवं पंथों की परंपराओं से बनते दिखे।

हालांकि संतों की जाति नहीं होती, किंतु भक्ति काल में दलित एवं पिछड़ी जातियों में अनेक संत पैदा हुए। रविदास जी, धाना, पीपा जैसे महान संत दलित एवं पिछड़ी जातियों के बीच से ही उभरे। दलितों की संस्कृति पर भक्तिकालीन संतों का प्रभाव आज भी है, जिन्होंने उनमें आत्मसम्मान और मानवीय गरिमा का भाव का पैदा किया। कहने की अवश्यकता नहीं कि इन सभी सन्तों, गुरुओं, पन्थों की नींव मूल रूप से आस्तिक हिंदुत्व में ही है, न कि नास्तिक बौद्धवाद या रेडिकल अम्बेडकरवाद में।

स्पष्ट है कि बौद्ध बन चुके या बौद्ध धर्म की ओर झुकाव रखने वाले महार या जाटव समाज के एक बड़े हिस्से में राजनीतिक चेतना के आधार भीमराव रामजी अम्बेडकर अवश्य हैं लेकिन बाकि हिन्दू अनुसूचित जातियों की चेतना किसी न किसी आस्तिक हिन्दू सन्त, गुरु या पन्थ द्वारा निर्मित है। मैं ये नहीं कह रहा है कि इन जातियों में अम्बेडकर का सम्मान नहीं है परन्तु इनकी पूरी जातीय अस्मिता पर तथाकथित दलित चिंतकों द्वारा एकमेव अम्बेडकरवाद का ही आरोपण करना अनुपात से ज्यादा ही माना जाएगा।

दुर्भाग्य से दलितों को सम्बोधित करते वक्त केवल और केवल अम्बेडकर की ही बात कर भाजपा भी जाने-अनजाने अब उसी नैरेटिव को आगे बढ़ा रही है जो बौद्ध बुद्धिजीवियों द्वारा गढ़ा गया है। यह एक तरह से हिन्दू अनुसूचित जातियों को जबरन नास्तिक बौद्धवाद की ओर धकेलना हो गया। इससे बचने की जरूरत है। दलित चेतना विकेंद्रीकृत है, इस विविधता का सम्मान होना चाहिए।

बसपा का डर 

वर्तमान समय में बसपा जिस डर से गुजर रही है उसका कारण ऊपर वर्णित दलित चेतना का विकेंद्रीकरण ही है। मायावती यह जानती हैं कि चेतना विकेंद्रीकृत हो तो भविष्य में नेतृत्व का विकेंद्रीकरण भी हो सकता है। फ़िलहाल तो दलितों के बड़े हिस्से को भाजपा ले उड़ी है लेकिन अगर भाजपा का पराभव भी हो जाए तो यह डर यथावत रहेगा कि ओबीसी जातियों की तरह दलितों में भी अलग-अलग नेतृत्व उभर सकता है और नवबौद्ध जाटव नेतृत्व का एकाधिकार समाप्त हो सकता है।

वैसे भी कांशीराम का बहुजन मूवमेंट अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी और मजहबी अल्पसंख्यकों को एक मंच पर लाने का था। लेकिन अल्पसंख्यक तो कभी जुड़े नहीं, मजबूत ओबीसी जातियाँ भी समाजवादियों के साथ चली गईं। अति-पिछड़ी जातियाँ कुछ समय बसपा के साथ रहीं लेकिन अपनी अलग जातीय चेतना को पहचानने के बाद इन जातियों के नेता भी बसपा से अलग लाइन पकड़ते रहे।

बसपा से अलग होकर सोनेलाल पटेल (अब अनुप्रिया पटेल के नेतृत्व में) ने अपना दल, ओमप्रकाश राजभर ने सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, संजय निषाद ने निषाद पार्टी बनाई वहीं प्रमुख कोइरी (मौर्य, कुशवाहा) नेताओं ने भाजपा का दामन थाम लिया। ये सभी नेता और इनकी पार्टियां किसी न किसी जाति की राजनीतिक चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं, और इन सबने यूपी की राजनीति में अपना उल्लेखनीय स्थान भी बना लिया है।

जाहिर है इनकी जाति की राजनीतिक चेतना बसपा के जाटव नेतृत्व की मोहताज नहीं। अब बसपा को यही डर है कि जिस प्रकार इन अति-पिछड़ी जातियों ने बसपा से अलग होकर भी राजनीतिक सफलता प्राप्त कर ली उसी प्रकार अनुसूचित जातियाँ भी ऐसा कर सकती हैं। ध्यान रहे, अलग राजनीतिक चेतना तो उनमें मौजूद है ही, बस नेतृत्व की दरकार है जो कभी भी उभर सकता है, फ़िलहाल तो भाजपा इनका प्रतिनिधित्व कर ही रही है।

इसी डर के कारण नवबौद्ध नेता अब एससी/एसटी एक्ट, आरक्षण और अन्य दलित मुद्दों पर तमाम भ्रम और अफवाहें फैलाकर अराजकता और भय का माहौल बना रहे हैं ताकि सारी हिन्दू अनुसूचित जातियाँ इनके झूठ से प्रभावित होकर भाजपा का साथ छोड़ नवबौद्ध जाटव (और महाराष्ट्र में महार) नेतृत्व को स्वीकार कर लें।

भाजपा का असमंजस

एक उदाहरण लीजिए। जब कनाडा के प्रधानमन्त्री जस्टिन ट्रुडोउ भारत दौरे पर आए तो न जाने किस होशियार ने उन्हें सलाह दे दी कि भारतीय दिखने के लिए 24 घण्टे शेरवानी पहनना जरूरी है। बस, ट्रुडोउ ने सपरिवार शेरवानी धारण कर ली और चार दिन तक भारत में ऐसे ही बाराती जोकरों की तरह घूमते रहे।

कहावत है कि नया मुल्ला प्याज ज्यादा खाता है, नया रंगरूट सलामी ज्यादा ठोंकता है और नया ड्राईवर भोंपू यानी हॉर्न ज्यादा बजाता है। दलितों और अम्बेडकर प्रतिकात्मकता को लेकर मोदी सरकार का रवैया भी कुछ कुछ ऐसा ही मालूम पड़ता है।

जाने किसने भाजपा को यह यकीन दिला दिया है कि दलितों को खुश करने के लिए हमेशा अम्बेडकरवाद की माला जपना जरूरी है। अनुसूचित जातियों का बड़ा वोट भाजपा को मिलने के बावजूद भी दलित मुद्दे पर हर बार बैकफुट पर रहने की मोदी सरकार की हरकतें दलितों के प्रति कम और तथाकथित दलित चिंतकों के प्रति ज्यादा तुष्टिकारक दिखती हैं।

2014 की प्रचण्ड जीत स्पष्ट रूप से बदलाव की लहर थी। लेकिन 2017 की यूपी विधानसभा की ऐतिहासिक जीत में बड़ी भूमिका निभाने वाले दलितों के वोट के पीछे मोदी सरकार की गरीबोन्मुख नीतियाँ, यथा जनधन योजना, निःशुल्क गैस कनेक्शन की उज्ज्वला योजना, 12 रूपये का बीमा, डीबीटी के जरिए मनरेगा और गैस सब्सिडी समेत कई योजनाओं की रकम सीधे गरीबों के खाते में जाना इत्यादि बड़े कारण थे।

इन नीतियों ने बसपा के बंधुआ माने जाने वाले दलित वोटरों को भाजपा की ओर मोड़ दिया था। फिर भी भाजपा को लगता है कि ये नीतियाँ दलितों को खुश करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं और दलित हितैषी दिखने के लिए तथाकथित दलित बुद्धिजीवियों का भावनात्मक तुष्टिकरण जरूरी है। कथित दलित मुद्दों पर देश में जो भी बेचैनी और अराजकता का माहौल दिखता है वह आम दलितों द्वारा नहीं बल्कि नवबौद्धों, ईसाई मिशनरियों, संदिग्ध NGOs और कुछ गुंडे एक्टिविस्टों द्वारा निर्मित किया जाता है।

भाजपा का डर वस्तुतः दलितों का नहीं बल्कि इन्हीं तथाकथित दलित बुद्धिजीवियों का तुष्टिकरण है जो मीडिया और एनजीओ द्वारा खड़े किए गए हैं और जिन्हें आम दलित जानता तक नहीं।

भाजपा के इस तुष्टिकरण के पीछे विरोधियों से प्रशंसा पाने की वही सनातन भाजपाई मानसिकता जिम्मेदार है जो अरसे से चली आ रही है। अटल बिहारी वाजपेयी भी पाकिस्तान या मुस्लिम मुद्दों को डील करते वक्त अपने समर्थकों के बजाय इस बात की ज्यादा परवाह करते थे कि कुलदीप नैयर जैसे सेकुलर पत्रकार, बुद्धिजीवी इसे कैसे देखेंगे। कालांतर में आडवाणी जी भी सुधीन्द्र कुलकर्णी जैसे फ्रॉड सेकुलरों की नजर में अपनी स्टेट्समैन की छवि बनाने के चक्कर में जिन्ना की तारीफ कर अपने सियासी जीवन का सबसे बड़ा आत्मघात कर बैठे।

तुष्टिकरण किसी का भी हो, अब तक का राजनीतिक अनुभव तुष्टिकरण करने वालों के लिए बुरा ही रहा है। बात सिर्फ अटल -आडवाणी की नहीं। आजादी से पहले गांधी-नेहरू भी मुसलमानों को खुश करने के लिए आजीवन चप्पल घिसते रहे लेकिन जब देश के विभाजन के रूप में निर्णय की घड़ी आई तो मुसलमान गांधी-नेहरू के बजाय जिन्ना के साथ चले गए।

वीपी सिंह ने भी मण्डल कमीशन की रिपोर्ट लागू कर जातिगत तुष्टिकरण का बड़ा दांव खेला था लेकिन उसके बावजूद भी उनका सियासी कैरियर यहीं से खत्म हो गया। ध्यान रहे, मैं यहाँ दलितों-पिछड़ों की तुलना मुसलमानों से नहीं कर रहा हूँ। बल्कि, इन तथाकथित दलित बुद्धिजीवियों की तुलना मुसलमानों से कर रहा हूँ। मुसलमानों की तरह ये भी कभी सन्तुष्ट नहीं होंगे क्योंकि कांग्रेसी इकोसिस्टम ने इन्हें पैदा ही हिन्दुत्व को हाशिए पर धकेलने के लिए किया है।

दुर्भाग्य से वर्तमान भाजपा नेतृत्व भी इन्हीं तथाकथित दलित चिंतकों की नजर में खुद को सामाजिक न्यायवादी और अम्बेडकरभक्त साबित करने के लिए छटपटा रहा है, जो केवल मीडिया और संदिग्ध एनजीओ गिरोहों द्वारा एक खास एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए खड़े किए गए हैं। टीवी चैनलों पर बैठकर दलित चिंतक के रूप में डिबेट करने वाले किसी एक भी बकैत को आम हिन्दू दलित जानता भी नहीं होगा।

बेहतर होगा भाजपा अपनी विचारधारा पर दृढ़ रहते हुए केंद्र सरकार की योजनाओं द्वारा दलितों को हुए लाभ को ही चर्चा में बनाए रखे और मीडिया की पिच पर खेलना बन्द करे। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सरकारी योजनाओं में दलितों के बीच ‘महादलित’ वर्ग को चिन्हित कर आरक्षण के अंदर आरक्षण देने की नीति प्रस्तावित है। इस शानदार योजना को जितनी जल्दी हो सके लागू करना चाहिए ताकि अनुसूचित जाति के आरक्षण का बड़ा हिस्सा खा जा रहे हाथीछाप बौद्धों के मुकाबले छोटी हिन्दू अनुसूचित जातियों को भी आरक्षण का समानुपातिक लाभ मिल सके।

तथाकथित दलित चिंतकों की परवाह छोड़कर ऐसे ही और कार्यक्रम लागू करते हुए भाजपा फ्रंटफुट पर आए। बैकफुट पर रहकर तुष्टिकरण का अनुभव बुरा रहा है, इससे किसी का भला नहीं होने वाला।

  Support Us  

OpIndia is not rich like the mainstream media. Even a small contribution by you will help us keep running. Consider making a voluntary payment.

Trending now

Saurabh Bhaarat
Saurabh Bhaarat
सौरभ भारत
- Advertisement -

Latest News

Recently Popular