देश के सबसे बड़े प्रदेश के मुख्यमंत्री, जो सबसे कहते रहते थे कि काम बोलता है, वो आज भाजपा से अकेले मुक़ाबला करने में घबरा रहे हैं। उन्हें अब प्रदेश में अपनी सरकार द्वारा किये कार्यों पर भरोसा नहीं हैं। वह आज एक ऐसी पार्टी से गठबंधन कर रहे हैं,जो खुद राजनीति में अपने अस्तिव के लिए संघर्ष कर रही हैं। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं अखिलेश यादव की।
पिता मुलायम ने 2012 के चुनाव में हुई समाजवादी पार्टी की जीत का सेहरा अपने बेटे अखिलेश के सिर बाँधा और उनको उत्तर प्रदेश उपहार के तौर पर दिया। अखिलेश यादव प्रदेश के मुख्यमंत्री तो बन गए थे मगर उनके प्रति लोगों में एक धारणा यह बन गयी थी की भले मुख्यमंत्री की कुर्सी पर वो बैठे हो मगर प्रदेश उनके पिता मुलायम ही संभाल रहे हैं। यह धारणा अभी हाल में ही समाजवादी पार्टी में हुए घमासान के बाद बदल चुकी है। आज सबको यह यकीन हो गया है की प्रदेश के साथ-साथ पार्टी भी अखिलेश यादव ही चला रहे हैं।
अखिलेश यादव ने अपनी ‘ब्रांडिंग’ तो काफी पहले से ही शुरू कर दी थी, लेकिन 2016 के ख़त्म होते-होते हर समाचार चैंनलों पर ख़बरों के बीच आने वाले प्रचार में नवाज़ुद्दीन सिद्दकी से लेकर विद्या बालन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की तारीफों के पुल बांधते हुए आने लग गए। वो प्रदेश के लिए किये उनके कार्यों का बख़ान करते हैं, वो जनता को ये भरोसा दिला रहे हैं की उनके मुख्यमंत्री ने उनके लिए बहुत कुछ किया हैं। ‘चिकनी है अब तो सड़क-सड़क’ से लेकर ‘काम बोलता हैं’ जैसे तमाम प्रचार मुख्यमंत्री की तारीफों में बन चुके हैं।
ऐसा नहीं हैं की मुख्यमंत्री ने प्रदेश में कुछ काम नहीं किया हैं, लेकिन शायद वह भी जानते हैं की उनके किये वो कुछ काम उन्हें प्रदेश में दोबारा जीत दिलाने के लिए काफी नहीं हैं। वह भी तब जब सीधा मुक़ाबला भाजपा से हो, ये शायद भाजपा का खौफ ही है की मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कांग्रेस से चुनाव से पहले ही हाथ मिलाने पर मजबूर हो गए हैं। कांग्रेस वो पार्टी है, जो दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दिक्षित को मुख्यमंत्री का चेहरा बना ‘पांच साल यूपी बेहाल’ का नारा लगाकर अकेले चुनाव लड़ने के लिए उतरी थी। कांग्रेस तो शायद पहले से जानती है की वह यूपी चुनाव अकेले नहीं जीत सकती इसलिए समाजवादी पार्टी के साथ हुआ गठबंधन उसकी एक बहुत बड़ी जीत है, लेकिन अखिलेश यादव कांग्रेस से गठबंधन कर मुख्यमंत्री के तौर पर हार चुके हैं।
भाजपा के विरोधी इस गठबंधन की तुलना बिहार में हुए महागठबंधन से कर रहे हैं, पर ये तुलना कहीं से भी ठीक नहीं हैं क्योंकि बिहार का महागठबंधन तब की सत्ताधारी सरकार भाजपा और जेडीयू के अलग होने की उपज थी। तब भाजपा को रोकने के लिए बना वो गठबंधन समझ में आता था, लेकिन यूपी में तो भाजपा सत्ता में है ही नहीं और अगर अखिलेश यादव को प्रदेश में किये अपने काम पर यकीन हैं, तो वो जनता पर यकीन क्यों नहीं कर रहे? वह भाजपा का अकेले मुक़ाबला करने में इतना डर क्यों रहे हैं?
इस सवाल का जवाब मेरे जैसा हर यूपीवाला अपने मुख्यमंत्री से जानना चाहता हैं। चुनाव के नतीजे जो भी आए लेकिन हम यूपी वालों को सपा और कांग्रेस के गठबंधन के बाद से मुख्यमंत्री अखिलेश के चेहरे पर कुर्सी हारने का खौफ दिखने लगा हैं।