Thursday, April 18, 2024
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नानाजी: अनुकरणीय पुरुष

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AKASH
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दर्शनशास्त्र स्नातक, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी परास्नातक, दिल्ली विश्वविद्यालय PhD, लखनऊ विश्वविद्यालय

मैं अपने लिए नहीं बल्कि अपनों के लिए जीता हूँ –
नानाजी देशमुख

इंदिरा गाँधी के तानाशाह शासन के खिलाफ जब जेपी आन्दोलन कर रहे थे तब पटना में पुलिसिया दमन के कारण उनपर लाठी पड़ने ही वाली थी कि उस लाठी को जेपी से पहले अपने शरीर पर नानाजी देशमुख ने ले लिया। उस दिन सभी अख़बारों के फोटो में जेपी के पीछे साये की तरह खड़े रहने वाले नानाजी देशमुख संघ प्रचारक थे और जेपी के समाजवादी विचारों के इतर उनकी विचारधारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हिंदुत्व और राष्ट्रवाद पर आधारित थी।

नानाजी देशमुख का जन्म महाराष्ट्र के हिन्डोली कस्बे के कडोली में 11 अक्टूबर 1916 को हुआ था। छोटी सी आयु में ही इनके माता-पिता का निधन हो गया। नाना जब 9 वीं कक्षा में अध्ययनरत थे तब इनकी भेंट डॉ. हेडगेवार से हुई तब अपने व्यवहार से नाना ने डॉक्टर साहब का दिल जीत लिया था। 1934 में डॉ. हेडगेवार ने 17 स्वयंसेवकों को शिक्षा दी तो उन 17 लोगों में नाना भी शामिल थे। हेडगेवार जी की प्रेरणा से ही नानाजी मैट्रिक की पढाई के बाद 1937 में पिलानी गये। 1940 में जब वे संघ का प्रथम वर्ष करने वापस नागपुर आये तब सरसंघचालक अपनी जीवन की अंतिम घड़ियों में थे और उनके अंतिम भाषण को सुनने के पश्चात् देश सेवा का व्रत लिए नानाजी ने अपनी पढाई बीच में छोड़ पूर्णकालिक जीवन में जाने का निश्चय कर लिया।

संघ कार्य के लिए उनको सबसे पहले आगरा भेजा गया जहाँ उनकी मुलाकात पढाई के उद्देश्य से आये दीनदयाल उपाध्याय से हुई और यही से उनकी दीनदयाल जी से मित्रता हुई। जिसका परिणाम आज हमें दीनदयाल उपाध्याय शोध संस्थान के रूप में देखने को मिलता है। इसके बाद इनको संघकार्य के लिए कानपुर और गोरखपुर में जाना हुआ। जहाँ इन्होनें अपने आत्मीय भाव और संगठन कुशलता से 1942 तक 250 शाखाएं खुलवा दी थी।

गाँधी जी की हत्या के बाद 4 फरवरी को संघ पर प्रतिबन्ध के बाद गोरखपुर से नानाजी को गिरफ्तार कर लिया गया था। जब वह 6 महीने बाद छूटे तो उनको लखनऊ में राष्ट्रधर्म का कार्य करने भेजा गया। लखनऊ में रहते हुए ही उन्होंने एक गृहस्थ कार्यकर्त्ता कृष्णकांत जी के द्वारा सरस्वती शिशु मंदिर का कार्य गोरखपुर प्रारंभ में कराया।

भारत के आज़ाद होने के बाद नानाजी का कार्य बढ़ता गया और हर बार उनका कार्यक्षेत्र नया होता जा रहा था। 1951 में जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ की स्थापना की तब संघ की तरफ से उनकी सहायता के लिए जिन दो लोगों  का चयन किया गया उसमें एक नाम नानाजी का भी था। नानाजी को उत्तर प्रदेश का कार्य सौपा गया। जिनके संगठन कुशलता के कारण 15 वर्षों में उत्तर प्रदेश में भारतीय जनसंघ के 100 विधायक हो गये थे।

नानाजी ने अपनी विचारधारा के इतर दूसरे राजनीतिज्ञों से कुशल संबध स्थापित करने के प्रयास किये थे। इसका एक उदाहरण है जब वह समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया से परिचय करने के लिए लखनऊ में उनके कॉफी हाऊस अड्डे पर जा पहुंचे थे। अपना परिचय देकर कहा कि मैं आपसे संबंध बनाना चाहता हूं। डॉ. लोहिया ने उपहास करते हुए कहा, ”तुम जनसंघ के हो, यानी संघ के हो, तब तुम्हारी-हमारी दोस्ती कैसे जमेगी?” नानाजी ने कहा, ”मैं संघ का हूं और अंत तक रहूंगा, फिर भी आपसे संबंध चाहता हूं।” इस तरह उन्होंने विपक्ष के कई बड़े नेताओं के साथ सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये थे।

जब जेपी देश की स्थिति को देखकर परेशान थे। तब अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के गुजरात छात्र आन्दोलन के जन-ज्वार को दिखाकर नानाजी ने ही जेपी को आन्दोलन के लिए तैयार किया था। यह ठीक वैसा ही था जैसा रामायण में जामवंत ने हनुमान को उनकी शक्तियां बताकर किया था। नानाजी इस आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका में रहे। आपातकाल के विषय में उनको एक रात पहले किसी ने सूचना दी थी जिस कारण वह गिरफ्तारी से बच गये। इसके बाद उन्होंने लोक संघर्ष समिति के बैनर तले आन्दोलन का सफल सञ्चालन किया। इस आन्दोलन को सफल बनाने के लिए उन्होंने अपना हुलिया भी बदल लिया था। जहाँ वह पहले धोती कुरते में रहा करते थे लेकिन इस दौरान उन्होंने पेंट शर्ट और अपने बालों पर विग का भी इस्तेमाल किया था।

जय प्रकाश नारायण के साथ नानाजी देशमुख

17 महीने जेल में रहने के बाद जब वह जेल से बाहर आये तो मोरार जी देसाई के मंत्रिमंडल में उनको उद्योग मंत्री जैसा महत्वपूर्ण दायित्व देने का प्रयास किया गया। लेकिन संगठन कार्य को और प्रभावी बनाने के लिए उन्होंने इस पद को अस्वीकार कर दिया। जेल के दौरान ही उन्हें राजनीति से बोरियत सी महसूस होने लगी थी जिस कारण से उन्होंने 8 अक्टूबर 1978 को पटना में एक भाषण के दौरान राजनीति से संन्यास की घोषणा कर दी।

इसके बाद भी नानाजी का देशप्रेम का जज्बा कम नहीं हुआ और उन्होंने रचनात्मक कार्यों को अपना लक्ष्य बनाया। इसके लिए उन्होंने अपनी राजनीतिक जमीन गोंडा को चुना। यहाँ जयप्रभा (जयप्रकाश नारायण और उनकी पत्नी प्रभावती) नामक ग्राम की स्थापना की। नानाजी ने जिले को गरीबी से बाहर निकालने के लिए ‘हर खेत में पानी, हर हाथ को काम’ का नारा दिया और सर्वांगीण विकास के चार सूत्र निर्धारित किए – शिक्षा, स्वावलंबन, स्वास्थ्य एवं समरसता।

सामाजिक समरसता का दृश्य प्रस्तुत करने की दृष्टि से 25 नवंबर, 1978 का दिन स्वाधीन भारत के इतिहास का एक अविस्मरणीय दिन रहेगा। उस दिन पहली बार तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. नीलम संजीव रेड्डी ने जयप्रभा ग्राम में गरीब किसानों के साथ एक पंक्ति में जमीन पर बैठकर भोजन किया और ग्रामोदय प्रकल्प का विधिवत उद्घाटन किया।

नानाजी ने ग्रामोदय के साथ साथ वानप्रस्थ अभियान, समाज शिल्पी दम्पति सहित चित्रकूट में ग्रामोदय विश्वविद्यालय की स्थापना की। नानाजी के ग्रामोदय अभियान को देखते हुए उन्हें 1999 में पद्म विभूषण और 2019 में मरणोपरांत भारतरत्न से सम्मानित किया गया।  27 फरवरी 2010 को चित्रकूट में उनका महाप्रयाण हुआ और उनकी इच्छानुसार उनकी देह दिल्ली के एम्स को छात्रों के अनुसन्धान के लिए समर्पित कर दी गई।

आकाश अवस्थी
(शोध छात्र, लखनऊ विश्वविद्यालय)

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